________________
अशिष्ट संत
२०५
के वशीभूत होकर तप कर रहा है। सपस्वी के पास जाकर कुमार ने कहा तपस्वी महाराज ! आपने सम्यफ-सप एवं मिथ्या सप के भेव को जाने बिना ही संपन्था करना प्रारम्भ कर दिया है । इस लकड़ी को भाप जला तो रहे हैं, लेकिन इसमें एक सर्प का जोडा अन्दर-ही-अन्दर जल रहा है। तपस्वी यह सुनकर बड़ा कुन हुमा मोर उसने कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काट की। लकमे काटने पर उसमें से माये जले हुए एवं सिसकते हुए सर्प एवं सपिणी निकले । कवि ने इसका सरल भाषा में परणंन किया है
सुरिण बिरतांत बोलियो जी कुमार। एह सपयुगी नवि तारणहार।। एह अज्ञान तप निति करे। सुणि तहां तापसी बोलियो एम ।। वित में कोन सपानी घणे । कहो जी अज्ञान तप हम तसो केम ॥श्री०॥१३९॥
सुणि जिरणवर तहां बोलियो जाणि । लोक तिथि जारणों जी अवधि प्रमारिए । सुरिण रे अज्ञानी हो तापसी। बल छ जो काष्ट माझ सप्पणी सर्प। ते तो जी भेद जाण्यों नहीं । कर यो जो वृथा मन में तुम्ह दपं ॥श्री ॥१४०।। करि प्रति कोप करि गृहो जी ठार । काठ हो छदि कीयो तिरा छार। सर्पगो सपं तहां निसरया । अर्धे जी दग्ध तहां भयो जी सरीर ।। आकुला व्याकुला बहु करें। करि कृपा भाव जीरावर वरवीर |श्री०।१४१॥
पाश्वकुमार ने मौवन प्राप्त करने पर माता-पिता ने उनसे विवाह करने का वह किया, लेकिन उन्हें तो भात्मकल्याण अभीष्ट था, इसलिए वे क्यों इस पर्वकर में फंसते । प्राखिर उन्होंने जिम-दीक्षा ग्रहण करली और मुनि हो गये। एक दिन जब ध्यानमग्न थे, संयोगवश उधर से ही वह वेव भी विमान से या