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६. मट्टारक श्रमयनन्दि
भट्टारक प्रभयचन्द्र के पश्चात् अभयनन्दि भट्टारक पद पर अभिषिक्त हुए । ये भी अपने गुरु के समान ही लोकप्रिय भट्टारक थे, शास्त्रों के ज्ञाता थे, विद्वान् ये और उपदेष्टा थे । साहित्य के प्रेमी थे । यद्यपि अभी तक उनकी कोई महत्वपूर्ण रचना नहीं उपलब्ध हो सकी है लेकिन सागवाड़ा, सूरत एवं राजस्थान एवं गुजरात के अन्य शास्त्र मण्डारों में संभवतः इनकी अन्य रचना भी मिल सके। एक गीत में इन्होंने अपना परिचय निम्न प्रकार किया है
राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
अभयचन्द्र वादेन्द्र ह.. अनंत गुण निधान । तास भाट प्रयोज प्रकासन, अभयनन्दि सुरि भाग ।
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श्रमयनंदी व्याख्यान करता, प्रभेमति मे थल पासु । चरित्र श्री वाई तो उपदेशे ज्ञान कल्याणक गाउ ॥
उनके एक शिष्य संयमसागर ने इनके सम्बन्ध में दो गीत लिखे हैं । गीतों के अनुसार जालापुर के प्रसिद्ध बबेरवाल श्रावक संघवी प्रासवा एवं संघवी राम ने संवत् १६३० में इनको भट्टारक पद पर अभिषिक्त किया। वे गौरव एवं शुभ देह वाले यति थे-
कनक कांति शोभित तस गात, मधुर समान सुर्वारण जी । मदन मान मर्दन पंचानन, भारती गच्छ सन्मान जी ।
श्री अभयन न्विसूरी पट्ट घुरंधर, सकल संघ जयकार जी । सुमतिसागर तस पाय प्रणमें, निर्मल संयम धारी जी || ९ ||
१०. ब्रह्म जयराज
ब्रह्म जयराज भ० सुमतिकीत्ति के प्रशिष्य एवं म० गुणकीर्ति के शिष्य थे । संवत् १६३२ में भ० गुणकीति का पट्टाभिषेक हंगरपुर नगर में बड़े साथ किया गया था। गुरु छन्द में इसी का वर्णन किया गया है। में देश के सभी प्रान्तों से श्रावक गण सम्मिलित हुए में क्योंकि उस सुमतिकत्ति का देश में अच्छा सम्मान था ।
संवत् सोलोमि, वैशाख कृष्णा सुपक्ष | दशमी सुर गुरु जातिय, लगन लक्ष सुभ दन |
उत्साह के
पट्टाभिषेक समय म०
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१. इसको प्रति मावीर भवन जयपुर के रजिस्टर संस्था ५ पृष्ठ १४५ पर
लिखी हुई है ।
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