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अवशिष्ट संत
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१५. भट्टारक सम्मानन्द (पशम)
ये भ. सकलचन्द्र के शिष्य थे । इनकी अभी एक रचना 'चौबीसी' प्राप्त हुई है जो संवत् १६७६ की रचना है। इसमें २४ तीर्थकर का गुणानुवाद है तथा अन्तिम २५ वें पद्य में अपना परिचय दिया हुआ है । रचना सामान्यतः अच्छी है
अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है:
संवत् सोल छोत्तरे कवित्त रच्या संघारे, पंचमीशु शुक्रवारे उदेष्ठ वदि जान रे । मूलसंघ गुणचन्द्र जिनेन्द्र सकलचन्द्र, मट्टारक रत्नचन्द्र बुद्धि गछ भांगरे । त्रिपुरो पुरो पि राज स्वतों ने तो अमराज, भामोस्यो मोलत राज त्रिपुरो बासागरे । पीछो छाजु ताराचदं, छीतरवचंद, ताउ खेतो देवचंद एहु' की कल्याण रे ।।२५।।
१६. ब्रह्म अजित
ब्रह्म अजित संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। ये गोलशृगार जाति के श्रावक थे। इनके पिता का नाम बीरसिंह एवं माता का नाम पीथा था। ब्रह्म अजित भट्टारक सुरेन्द्रकीति के प्रशिष्य एवं भट्टारक विद्यामन्दि के शिष्य थे। ये ब्रह्मचारी थे और इसी अवस्था में रहते हुए इन्होंने भृगुकच्दनपुर (महौच ) के नेमिनाथ चैत्यालय में हनुमच्चरित को समाप्ति की थी। इस चरित की एक प्राचीन प्रति आमेर शास्त्र मण्डार जयपुर में संग्रहीत है। हमुमच्चरित में १२ सर्ग हैं और यह अपने समय का काफी लोक प्रिय काव्य रहा है।
ब्रह्म अजित एक हिन्दी रचना 'हंसागीत' भी प्राप्त हुई है। यह एक उपदेशात्मक प्रथवा दिक्षाप्रद कृति है जिसमें 'हंस' ( आत्मा ) को संबोधित करते हुए ३७ पद्य हैं । गोत की समाप्ति निम्न प्रकार की है
१. सुरेनकोतिशिष्यविद्यानं धनंगमवनेकपंडित: कलाधर ।
स्तदीय वेशनामवाप्ययोषमाश्रित्तो जितेंद्रियस्य भक्तितः ॥