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राजस्थान के जन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जयपुर के दि० जैन मन्दिर पाटोदी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। प्रति संवत् १७३३ की लिखी हुई है।
कवि को एक और रचना 'लघु वाहवलि बैल' तथा कुछ स्फुट पद भी मिले हैं। इसमें कवि ने अपने गुरु के रूप में शान्तिवास के नाम का उल्लेख किया है। यह रचना भी अच्छी । दसा इसमें पोक छ, इ. उपयोग हुआ है : चा का अन्तिम छन्द निम्न प्रकार है--
भरतेस्वर भावीया नाम्यूनिज वर शीस जी। स्तयन करी इम जंपए,हूं किंकर तु ईस जी । ईश तुमनि छोडी राज मझनि' आपीड । इम कहीमदिर गया सुन्दर शान भुबने व्यापीउ । श्री कल्याणकीरति सोममूरति चरण सेवक इम भरिण । शांतिदास स्वामी बाहुबलि सरण राखु मझ तह्म तरिण ।।६।।
१६. भट्टारक महीचन्द्र
___ मट्टारक महीचन्द्र नाम के तीन भट्टारक हो चुके हैं । इनमें से प्रथम विशालकीत्ति के शिष्य थे जिनकी कितनी ही रचनायें उपलब्ध होती है। दूसरे महीचंद्र मट्टारक वादिचन्द्र के शिष्य थे तथा तीसरे म० सहस्रमीत्ति के शिष्य थे। लबांकुश छप्पय के कवि भी संभवतः वादिचन्द्र के ही शिष्य थे । 'नेमिनाथ समवधारण विधि' उदयपुर के खन्देलवाल मंदिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है उसमें उन्होंने अपने को भ० यादिचन्द्र का शिष्य लिखा है ।
धी मूलसंघे सरस्वती गच्छ जाणो, बलातकार गण बखाणों । श्री वादिचन्द्र मने आणों, श्री नेमीश्वर चरण नमेसू॥३२॥ तस पाटे महीचन्द्र गुरु श्राप्यो, देश विदेश जग बहु व्याप्यो। श्री नेमीश्वर चरण नमेसू ॥३३॥
उक्त रचना के अतिरिक्त आपकी 'आदिनाथविनति' 'आदित्यत्रत कथा' आदि रचनायें और भी उपलब्ध होती है।