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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एव कृतित्व
एवं साधु स्वभाव से बरबस हृदय को स्वतः ही आकृष्ट कर लेते थे। एक भट्टारक पट्टायलि के अनुसार ये २५ वर्ष तक भट्टारक रहे। श्री वी० पी० जोहरापुरकर ने इन्हें केवल १ वर्ष तक मट्टारक पद पर रह्ना लिखा है।' भट्टारक बनने के पश्चात् इन्होंने अपनी गद्दी को दिल्ली से वित्तौड़ (राजस्थान) में स्थानान्तरित कर लिया और इस प्रकार से भट्टारक सकलकीत्ति की शिष्य परम्परा के भट्टारकों के सामने कार्यक्षेत्र में जा उद। इन्होंने अपने समय में ही मंडलाचार्यों की नियुक्ति की इनमें धर्मचन्द को प्रथम मंडलाचार्य बनने का सौभाग्य मिला 1. संवत् १५९३ में मंडलाचार्य : धर्मवन्द द्वारा प्रतिष्ठित कितनी ही मुत्तियां मिलती है । इन्होंने ने आंवा नगर में अपने तीन गुरुपों की निषेधिकायें स्थापित की जिससे यह भी ज्ञात होता है कि प्रमाचन्द्र का इसके पूर्व हो स्वर्गवास हो गया था।
प्रभाबन्द्र अपने समय के प्रसिद्ध एवं समर्थ भट्टारक थे। एन. लेन प्रशस्ति में इनके नाम के पूर्व पूर्वाचलदिनमणि, षड्तर्कताकिकचूडामणि, आदिमवकुद्दल, अवुष-प्रतिबोधक प्रादि विशेषण लाईसमे इनको दर.।
एनातिना परिज्ञान होता है।
साहित्य सेवा
प्रभाषन्द्र ने सारे राजस्थान में बिहार किया । शास्त्र-मण्डारों का अवलोकन किया और उनमें ममी-नयी प्रतियां लिखवा कर प्रतिष्ठापित की । राजस्थान के शास्त्र मण्डारों में इनके समय में लिखी हुई सैकड़ों प्रतियां सग्रहीत है और इनका यशोगान गाती है । संवत् १५७५ को भांगशीर्ष शुक्ला ४ को बाई पार्वती ने पूष्पदन्त कृत जसहर चरित की प्रति लिखवायी और मट्टारक प्रभाचन्द्र को भेंट स्वरूप दी ।
संवस्' १५७६ के मंगसिर मास में इनका टोंक नगर में विहार हमा । चारों ओर आनन्द एवं उत्साह का वातावरमा या भया । इसी विहार को स्मृति में पंडित नरसेनकृत्त "सिद्धचक्रकथा" की प्रतिलिपि खण्डेलवाल जाति में उत्पन्न टोंग्या गोत्र वाले साह घरमसी एवं उनकी भार्या खातू ने अपने पुत्र पौत्रादि सहित करवायी और उसे बाई पदमसिरी को स्वाध्याय के लिये भेंट दी।।
संवत् १५८० में सिकन्दराबाद नगर में इन्हीं के एक शिष्य प्र. वीडा को सण्डेलवाल जाति में उत्पन्न साह दौद् ने पुष्पदन्त कृप्त असहर चरित की प्रतिलिपि लिमका कर भेंट की। उस समय भारत पर बादशाह इब्राहीम लोदी का शासन RewammRIDINAwaamanMANORAMNIWANAMAmawww
१. रेपिये भवसारक सम्परसय पृष्ठ ११०. २. देखिये लेखक द्वारा सम्पाक्ति प्रवास्ति संग्रह पृष्ठ संख्या १८३.