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भट्टारक जगत्कीत्ति
जगत्कीत्ति अपने समय के प्रसिद्ध एवं लोक प्रिय भट्टारक रहे हैं। ये संवत् १७३३ में सुरेन्द्रफीति के पदचात् भट्टारक बने । इनका पट्टाभिषेक आमेर में हुआ था जहां आमेर और सांगानेर एवं अन्य नगरों के सेकड़ों हजारों श्रावकों ने इन्हें अपना गुरु स्वीकार किया था। तत्कालीन पंडित रत्नकति महोबन्द, एवं यशः कति ने इनका समर्थन किया 1 ये शास्त्रों के ज्ञाता एवं सिद्धान्त ग्रंथों के गम्भीर विद्वान थे। मंन्त्र शास्त्र में भी इनका अच्छा प्रवेश था। एक मट्टारक पट्टावली में इनके पट्टाभि षेक का निम्न प्रकार वर्णन किया है
मी मूलसंघ पति माणि धारी, आतमक जीवद्द राग वरं । आराध मन्त्र विद्या, बरवाद्दक, अमृत मूखि उचार कर ।
सत सील धर्म सारी परिस कय, वसुधा जस लिए विसतरीय । श्री जगकोट मारिज गुरु श्री सुरेष पाट राजद १४
आंवैरि नइरि ग्रुप राम राज मनि, विमलदास विधि सहित कोयं । परिमल भरि पंच कलस प्रति कुंदन पंचमिलि कल्याण कोयं ।
प्रांजलि काइसर दास भेलि करि, श्रति श्रानंद उच्छव करीय | श्री जगतकीरति भट्टारक जग र श्रीय सुरिईद पाटि घरि ||१५| सांखोण्यास सिरोर्माण सब विधि, दुनीया प्रम उपदेस दीय | उपगार उदार वडो व्रद छाजत, लोभ्या मुखि मुखि सुजस लीय ।
देवल पतिस्ट संग उपदेर्स अमृत वारिण सउचरीय
श्री जगतकीरति भट्टारक जगगुर, श्रीय सुरिहंद पाटिल भरिय ||१६||
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संवत सत्रात अर तेती सावरण बंदि पंचमी भरिए ।
पदवी भट्टारक अचल विराजित, घरण दान भ्रमण राजलं ।
महिमा महा सर्वे करें मिलि श्रावक, सीख साखा श्रानंद घरीय | श्री जगतकीरति भट्टारिक जगतपुर, श्रीसरिइदं पाटस घरीय ॥१७॥२
जगतकीति एक लम्बे समय तक भट्टारक रहे और इन्होने अपने इस काल को राजस्थान में स्थान स्थान में बिहार करके जन साधारण के जीवन को सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं धार्मिक दृष्टि से ऊंचा उठाया। संवत् १७४१ में आपने