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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
बारहखड़ी में यष, श, छ, का औरण इन कणों पर कोई दोहा नहीं है । इसमें ३३३ दोहा है जिनकी विभिन्न रूप से कवि ने निम्न प्रकार संख्या दी है।
एक्कु या ६ष शारदुइ डण तित्रिवि मिस्लि। चउबीस गल तिपिणसय, दिरइए दोहा वैहिल ॥४॥ तेतीसह छह छंडिया, विरश्य सत्तावीस । वारह गुणिया तिण्णिसय, हुअ दोहा चउवीस ।।५।। सो दोहा अप्पाणयह, दोहो जोण मुणेह । मुरिण महयविण भासियज, सुणिविर चित्ति घरेइ ॥६॥
प्रारम्भ में कवि ने अहिंसा की महत्ता बतलाते हुये लिखा है कि अहिंसा ही धर्म का सार है
किजइ जिरणवर भासियऊ, धम्मु अहिंसा सारु । जिम छिजइ रे जीव तुहु, यवलीन संसार |६||
रचना बहुत सुन्दर है। इसे हम उपदेशात्मक, अध्यात्मिक एवं नीति रसात्मक कह सकते हैं । कवि ने छोटे छोटे दोहों में सुन्दर नावों को भरा है। वह कहता है कि जिस प्रकार दूध में घी तिल से तेल तथा लकड़ी में अग्नि रहती है उसी प्रकार शरीर में आत्मा निवास करती है--
खीरह मज्दह जेम घिउ, तिलह मंजिल जिम तिलु । कट्टिह वरसगु जिम बसइ, तिम देहहि देहिल्लु ।।२२।। कृति में से कुछ चुने हुये दोहों को पाठकों के अवलोकनार्थ दिये जा रहे हैदमु दय संजमु णियमु तउ, आज मुषि किड जेरण । तासु मर तह कवरण भऊ, कहियउ महइ देण ॥१७५।। दारण चउबिहु जिणवरह, कहियउ सावय दिज्ज । दय जीवह उसंघदि, भोपणु ऊसह विज्ज ॥१७६।। पीडहि काउ परीसहहिं, जब रण वियंभइ चिन्न । मरणयालि प्रसि भाउसा, दिल चित्तडइ धरंतु ॥२१४।। फिर फिरहिं चक्कु जिम, गुरण उपलद म लोहु । गरय तिरिवलहि जीवडज, अमु चंतउ तिय मोहु ॥२२५।।