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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भट्टारक पट्टावली के अनुसार मे संवत् १६९१ में भट्टारक बने थे ! इनका पट्टाभिषेक सांगानेर में हुआ था । इसकी पुष्टि बलतराम साह ने अपने बुद्धि-विलास' में निम्न पद्य से की है:
नरोद्र मोरसि नाम, ५: इफ सांगागरिने । भये महागुन धाम, सौलह से इक्यावै ॥६६॥
ये "भ. देवेन्द्रकीति' के शिष्य थे, जो पामेर मादी के संस्थापक थे । सम्पूर्ण राजस्थान में ये प्रभावशाली थे । मालवा, मेवात तथा दिल्ली आदि के प्रदेशों में इनके भक्त रहते थे और जब वे जाते, तब उनका ख़ब स्वागत किया जाता । एक भट्टारक पढ़ायसी' में नरेन्द्रकीत्ति की आम्नायका-जहां २ प्रचार था, उसका निम्न पद्यों में नामोल्लेख किया है:
आमनाइ हिलीय मंडल मुनिवर, अवर मरहट देसयं । प्रणीए बत्तीसी विल्मास, वदि बराइस वेसर्य । मेवात मंडल सवै सुरणीए, परम तिण बांध घरा । परसिध पचवारीस मुरिगए, खलक बंदे अतिखरा ॥११८।। घर प्रकट ढुवा इडर ढाढ़ौ, प्रवर अजमेरौ भरणा । मुरधर संदेश कर महोछा, मंड चपरासी पणा ॥ सांभरि सुथान मुद्रग सुणीज, जुगत इहरं जाण ए। अधिकार ऐती घरा बोप, बिरुद अधिक बखाणए ॥११६॥ नरसाह नागरचाल निसचल वहीत खैराड़ा वर । मेवाष्ट्र देस चीतौड मोटो, महपति मंगल करा मालवे देसि बड़ा महाजन, परम सुखकारी सुरणा । आग्या मुवाल सुधुम सब विधि, माव भगि मोटा भगा ।।१२०॥ मांडौर मांडिल अजब, बून्दी, परसि पाटण धानयं । सीलौर कोटी ब्रह्मवार, मही रिणथंभ मानयं ॥ दीरप चंदेरी चाय निस्चल, महंत घरम सुमंडणा । विदेत लाखहरी विराज, अधिक उरिणयारा तणा ॥१२१।।
१. इसको एक प्रति महावीर भवन, जयपुर के संग्रहालय में है।
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