________________
१५८
राजस्थान के जैन संस-मस्तित्व एवं कृतित्व
जाणिए सोल कला शीश, मुखचन्द्र सोमासो कहुँ । . अघर विद्रुम राजतारा, दन्त मुक्ताफल लहु । कमल पत्र विशाल नेत्रा, नासिका सुक चंच । अष्टमी चन्द्रज भाल सौहे, देणी नाग प्रपंच ।। सुन्दरी देखी सेह राजा, चिन्तमें मन माहि ।. ए सुन्दरी सूर सूदरी, किन्नरी किम केह वाम !!
सुलोचना एक एक राजकुमार के पास आतो और फिर मागे चल देती। उस समय वहां उपस्थित राजकुमारों के हृदय में क्या-क्या कल्पनाए उठ रहीं थी- इसको भी देखिये :
एक हंसता एक खीजे, एक रंग करे नवा । एक जारण मुझ परसे, प्रेम धरता जुज वा ।। एक कह जो नहीं करें, तो अभ्यो तपमन जाय। एक कहतो पुण्य यो भी, एम वलयथासू ।।
एक कहे जो आवयातो, विमासण सह परहो। पुण्य फल ने बातगोए, ठाम सूम है अंडे धरै ।।
लेकिन जब 'सुलोचना' ने अक कीति' के गले में बरमाला न डाली, तो जयकुमार एवं अम्कोति में युद्ध भड़क उठा । एसी प्रसग में वगित युद्ध का दृश्य मी देखिए :
मला कटक विकट कबहू सुमट सू,
धीर बीर हमीर हठ विकट मू।
करी कोप कूटे चूटे सरबहूँ,
चक्र तो ममर खग म के सह ।। गयो गम गोला गगनांगरणे,
गो अंग प्रावे कोर इम मरणे । मोहो मांहि मूके मोटा महीपती,
चोट खोट न आवे झपम रती ।। बथो थवा करी बेहदूबसू',
___ कोपे करतां कुटे प्रखंड सू।