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भट्टारक शुभचंद्र (द्वितीय)
'शुभचन्द्र' के नाम से कितने ही भट्टारक हुए हैं । 'भट्टारक-सम्प्रदाय' में '४ शुभचन्द्र' गिनाये गये है:
१. 'कमल कीति के शिष्य
२. पद्मनन्दि के शिष्य३. 'विजयकीति' के शिष्य४. 'हर्षचन्द' के शिष्य
'भ० शुभचन्द्र'
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इनमें प्रथम काष्ठा संघ के माथुर गच्छ और पुष्कर मरण में होने वाले 'म० कमलकीत्ति के शिष्य थे । इनका समय १६वीं शताब्दि का प्रथम द्वितीय चरण था । 'दूसरे शुभचन्द्र' म० पद्मनन्दि के शिष्य थे, जिनका भ० काल स १४५० से १५०७ तक था | तीसरे 'भ० शुभचन्द्र' भ० विजयकीर्ति के शिष्य थे जिनका हम पूर्व पृष्ठों में परिचय दे चुके हैं । 'खोथे शुभचन्द्र' म० हर्षचन्द के शिष्य बताये गये हैंइनका समय १७२३ से १७४६ माना गया है। ये भट्टारक भुवन कीर्ति की परम्परा में होने वाले म० हर्षचन्द (सं. १९९८ - १७२३) के शिष्य थे। लेकिन 'आलोच्य भट्टारक शुभचन्द्र' 'म० प्रभयचन्द्र' के शिष्य थे जो म० रत्नकीप्ति के प्रशिष्य एवं 'म० कुमुदचन्द्र' के शिष्य थे जिनका परिचय यहाँ दिया जा रहा है-
'भट्टारक अभयचन्द्र' के पश्चात् संवत् १७२१ की ज्येष्ठ बुदो प्रतिपदा के दिन पोरबन्दर में एक विशेष उत्सव किया गया। देश के विभिन्न मागों से अनेक साधुसन्त एवं प्रतिष्ठित धावक उत्सव में सम्मिलित होने के लिए नगर में आये । शुभ मुहूर्त में 'शुभचन्द्र' का 'भट्टारक गादी' पर अभिषेक किया गया। सभी उपस्थित श्रावकों ने 'शुभचन्द्र' की जयकार के नारे लगाये । स्त्रियों ने उनकी दीर्घायु के लिए मंगल गीत गाये विविध वाद्य यन्त्रों सभा स्थल गूंज उठा और उपस्थित जन-समुदाय ने गुरु के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की 1
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'शुभचन्द्र' ने भट्टारक बनते हो अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया ।
१. देखिये- 'भट्टारक- सम्प्रदाय पु. ०.... ३०६
२. तक सज्जन उलट अंग घरे, मधुरे स्वरे माननी गांन करे ।।११।।
ताहां बहुविध वाजित्र वाजता, सुर नर मन मोहो निरवंता ॥१२॥