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मनि अभयचन्द्र
'ममयचन्द्र' नाम के दो भट्टारक हुए हैं । 'प्रथम अभयचन्द्र' भ. लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य थे, जिन्होंने एक स्वतंत्र 'भट्टारक-संस्था' को जन्म दिया । उनका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दि का द्वितीय चरण था। दूसरे "श्रमयचन्द्र' इन्हीं को परम्परा में होने वाले 'म. कुमुदचन्द्र' के शिष्य थे। यहां इन्हीं दूसरे 'प्रभयचन्द्र' का परिचय दिया जा रहा है।
'प्रभयपन्द्र' भट्टारक थे और 'कुमुदचन्द्र' की मृत्यु के पश्चात् भट्टारफ़ गादी पर बैठे थे । यद्यपि 'अभयचन्द्र' का गुजरात से काफी निकट का सम्बन्ध था, लेकिन राजस्थान में भी इनका बराबर विहार होता था और ये गांव-गांव, एवं नगर-नगर में भ्रमण करके जनता से सीधा सम्पर्क बनाये रखते थे। 'अभयचन्द्र' अपने गुरु के पोग्यतम शिष्य थे । उन्होंने म० रत्नकीत्ति एवं म० कुमुदचन्द्र का शासनकाल देखा था और देखी श्री उनकी 'साहित्य-साधना' । इसलिए जब ये स्वयं प्रमुख सन्त बने तो इन्होंने मो उसी परम्परा को बनाये रखा । संवत् १६८५ को फाल्गुन सुदी ११ सोमवार के दिन बारडोली नगर में इनका पट्टाभिषेक हुमा और इस पद पर संवत् १७२१ तक रहे।
'प्रभयचन्द्र' का जन्म सं० १६४० के लगभग 'हूंबई' वंदा में हुआ था। इनके पिता का नाम 'श्रीपाल' एवं माता का नाम 'कोडमदे' था । वचपन से ही बालक 'अभयचन्द्र' को साधुओं की मंउली में रहने का सुअवसर मिल गया था । हेमजीकु'अरजी इनके भाई थे-पे सम्पन्न घराने के थे। युवावस्था के पहिले ही इन्होंने पांचों महावतों का पालन प्रारम्भ किया था। इसी के साथ इन्होंने संस्कृत, प्राकृत के ग्रन्यों का उनचाध्ययन किया । न्याय-शास्त्र में पारगतता प्राप्त की तथा अलंकार-शास्त्र एवं नाटकों का गहरा अध्ययन किया । २ अच्छे वक्ता तो ये प्रारम्भ से ही थे, किन्तु बिद्धता के होने से सोने-सुगंध का सा सुन्दर समन्वय होगया ।
जब उन्होंने युवावस्था में पदार्पण किया, तो त्याग एवं तपस्या के प्रभाव से
१. हूंबड वंशे श्रीपाल साह तात, जनम्यो रूड़ी रतन कोडमवे मात |
लघु परणे लीयो महावत भार, मनवश करी जोत्यो दुद्धरभार ॥ २. तर्क नाटक पागम अलंकार, भनेक शास्त्र भण्या मनोहार ।
भट्टारक पर एहने छामे, जेहवे यश जग मा वास गाणे ।।