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प्राचार्य सोमकीति
ही कठिन हो जाये और न वे इतने सरल हैं कि उनमें कोई आकर्षण ही बाकी न बचे। उन्होंने काव्य रचना में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया---यही कारण है कि कवि के काव्य सदैव लोकप्रिय रहे और राजस्थान के सैकड़ों जैन प्रप भंडार इनक काव्यों की प्रतिलिपियों से समालंकृत है ।
प्राचार्य सोमकीत्ति
प्राचार्य सोमकीत्ति १५ वीं शताब्दी के उद्भट विद्वान, प्रमुख साहित्य सेवी एवं उत्कृष्ट जैन संत थे । उन्होंने अपने जीवन के जो लक्ष्य निर्धारित किये उनमें उन्हें पर्याप्त सफलता मिली। वे योगी थे । प्रात्म साधना में तत्पर रहते और अपने शिष्यों, साथियों तथा अनुयायियों को उस पर चलने का उपदेश देते। वे स्वाध्याय करने, साहित्य सृजन करते एनं लोगों को उसकी महत्ता बतलाते । यद्यपि अभी तक उनका अधिक साहित्य नहीं मिल सका है लेकिन जितना भी उपलब्ध हुभा है उस पर उनकी विद्वत्ता की गहरी छाप है। वे संस्कृत, प्राकृल, हिन्दी, राजस्थानी एवं गुजराती प्रादि कितनी ही भाषानों के ज्ञाता थे । पहिले उन्होंने जन साधारण के लिये हिन्दी राजस्थानी में लिखा और फिर अपनी दिद्वता बतलाने के लिये कुछ रचनायें संस्कृति में भी निबर की । उनका प्रमुख क्षेत्र राजस्थान एवं गुजरात रहा और इन प्रदेशों में जीवन भर विहार करके जन साधारण के जीवन को शान, एवं आत्म साधना की दृष्टि में चा उठाने का प्रयास करते रहे। उन्हान कितने ही मन्दिरों की प्रमिलायें करवायी, सांस्कृतिक समारोहों का आयोजन करवाया और इन मन्त्रक रा सभी को सत्य मार्ग का अनुसरण करने के लिए प्रेरित किया। वास्तव में वे अपने समय के भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं शिक्षा के महान प्रचारक थे।
आचार्य गोमकीन्न काष्ठा संघ के नन्दीतट शाखा के सन्त थे तया १० वीं शताब्दि ने प्रसिद्ध भट्टारमा मसेन की परम्परा में होने वाले मट्टारक थे। उनके दादा गुरू लक्ष्मीसेन एवं गुरु. भीमसेन थे 1 संवत १५१८ (सन् १४६१) में रचित एक ऐतिहासिक पट्टावली में अपने आपको काष्ठासंघ का ५७ वा भट्टारक लिखा है । इनके गृहस्थ जीवन के सम्बन्ध में हमें अब तक कोई प्रमाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकी है । वे कहां के थे, कौन उनके माता पिता थे, वे कब तक गृहस्थ रहे और कितने समय पश्चात इन्होंने साधु जीवन को अपनाया इसकी जानकारी अभी स्लोज का विषय है । लेकिन इतना अवश्य है कि ये संवत १५१८ में भट्टारक बन चुके थे