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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
में मिलता है । सर्व प्रथम भट्टारक ज्ञानभूषण ने कर्मकाण्ड टीका में सुमतिकीत्ति की सहायता से टोका लिखमा लिखा है:
तदन्वये दयांभोधि ज्ञानभूषो गुणाकरः । टीको ही कर्मकांडस्य चक्र मुमतिको त्तियुक् ।।२।।
वे 'सुमतिनीति' मुल संघ में स्थित मन्दिसंघ बलात्कारगण एवं सरस्वती गमन के भट्टारक वीरचन्द्र के शिष्य थे, जिनके पूर्व भट्टारक लक्ष्मीभूषण, मल्लिभूषण एवं विमानन्दि हो चुके थे । सुमतिकीति ने प्राकृत पंचसंग्रह'-टीवर को संवत् १६२० माद्रपद शुक्ला दशमी वो दिन ईडर के षभदेव के मन्दिर में समाप्त की थी । इस टोका का सगोधन भी ज्ञानभूपण ने ही किया था। इस प्रकार दोनों 'सुमतिकोति' का समय यद्यपि एक गा है, किन्तु इनमें एक मट्टारक सफल कोक्ति की परम्परा में होने वाले भ० शुमचन्द्र के शिष्य थे और दुसरे भट्टारब, देवेन्द्रकीत्ति की गरम्परा में होने वाले भट्टारक ज्ञानभूषण के शिष्य थे। 'प्रथम सुमतिकोत्ति' भट्टारक शुभचन्द्र के पश्वान् भट्टारक गादी पर बैठे थे, लेकिन दूसरे सुमतिकोत्ति संभवतः भट्टारक नहीं थे, किन्तु अह्मचारी अथवा अन्य पत्र धारी व्रती होंगे। यदि ऐसा न होता तो वे 'प्राकृत पंचसंग्रह टोका' में भट्टारक ज्ञानभूपरप के पश्चात् प्रभाचन्द का नाम नहीं गिनाते
भट्टारको भुवि ख्यातो जीयाछीजानभूषणः । तस्म महोदये भानुः प्रभाचन्द्रो वचोनिधिः ।।७।।
अब हम यहां 'भ० ज्ञानभूषण' के शिष्य 'सन्त सुमतिकीत्ति' की 'साहित्यसाधना' का परिचय दे रहे है ।
'सुमतिकीति' सन्त थे, और मट्टारक पद की उपेक्षा करके 'साहित्यसाधना' में अपनी विशेष रुचि रखते थे। एक 'भट्टारक -विरदायली' में 'शानभूषण' की प्रशंसा करते समय जब उनके शिष्यों के नाम गिनाये तो सुमतिकात्ति को सिद्धांतवेदि एवं निग्रन्धाचार्य इन दो विशेषणों से निर्दिष्ट किया है । ये संस्कृत,प्राकृत, हिन्दी एवं राजस्थानी के अच्छे विद्वान् थे। साधु बनने के पश्चात् इन्होंने अपना अधिकांश जीवन 'साहित्य-साधना' में लगाया और साहित्य-जगत को कितनी ही रचनाए भेंट कर गये । इनको अब तक निम्न रचनाए उपलब्ध हो चुकी हैं:हीका ग्रंथ१. कर्मकाण्ड टीका
२. पंचसंग्रह टीका
१. देखिये-५० परमानन्वनी द्वारा सम्पावित 'प्रवास्ति संग्रह'-पृ० सं०७५