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भट्टारक रत्नकोत्ति
वह विक्रमीय १७ वीं शताब्दी का समय था । भारत में बादशाह अकबर का पाासन होने से अपेक्षाकृत शान्ति थी किन्तु बागड एवं मेवाड़ प्रदेश में राजपूतों एवं मुगल शासकों में अनबन रहने के कारण सदैव ही युद्ध का खतरा तथा धार्मिक संस्थानों एवं सांस्कृतिक केन्द्रों के नष्ट किये जाने का भय बना रहता था । लेकिन बागड प्रदेश में म. सकलकीप्ति ने १४ वीं शताब्दी में धर्म प्रचार तथा साहित्य प्रचार की जो लहर फैलायी थो यह अपनी चरम सीमा पर थी। चारों ओर नये नये मंदिरों का निर्माण एवं प्रतिष्ठा विधानों की भरमार थी । भट्टारकों, मुनियों, साधुओं, ब्रह्मचारियों एवं स्त्री साद बिहार डोडा गुप्ता का एवं समले दुरगों द्वारा जान मानस को पवित्र किया करते थे । गृहस्थों में उनके प्रति अगाध श्रद्धा थी एवं जही उनके घरण पड़ते थे वहां जनता अपनी पलकें बिछाने को तैयार रहती थी। ऐसे ही समय में घोघा नगर के हूंवड़ जातीय थोडी देवीदास के पहां एक बालक का जन्म हुआ। माता सहालदे विविध कलाओं से युक्त बालक को पाकर फूली नहीं समायी । जन्मोत्सव पर नगर में विविध प्रकार के उत्सव किये गये । वह बालक बड़ा होनहार था बचपन में उस बालक को विस नाम से पुकारा जाता था इरा का कहीं उल्लेख नहीं मिलता।
जीवन एवं कार्य
बड़े होने पर वह विद्याध्यन करने लगा तथा थोड़े ही समय में उसने प्राकृत एवं संस्कृत मथों का गहरा अध्ययन कर लिया । एक दिन अकस्मात् ही उसका भट्टारक अभयनन्दि से साक्षात्कार हो गया । भट्टारक जी उसे देखते ही बड़े प्रसन्न हुये एवं उसकी विव्रता एवं वाकचातयंता ने प्रभावित होकर उसे अपना शिष्य बना लिया । अभयनंदि ने पहिले उसे सिद्धान्त, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष एवं
१. हंब शे विबुध पिल्यात रे,
मात सेहेजलवे देवीदास तातरें । फुभर कलानिधि कोमल काय रे पद पूजो प्रेम पातफ पलाय रे ।
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.: रनकोति गीत-गणेश कृत