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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
आयुर्वेद आदि विषयों के ग्रंथों का अध्ययन करवाया ।' वह व्युत्पन्न मति था इसलिमे शीघ्र ही उसने उन पर अधिकार पा लिया। अध्ययन समाप्त होने के बाद अभयनन्दि ने उसे अपना पट्ट शिष्य घोषित कर दिया । ३२ लक्षणों एवं ७२ कलाओं से सम्पन्न विद्वान युवक को कौन प्रपना शिष्य बनाना नहीं चाहेगा । संवत् १६४३ में एक विशेष समारोह के साथ उसका महाभिषेक कर दिया गया और उसका नाम रत्नकीति रखा गया । इस पद पर वे संवत् १६५६ तक रहे । अतः इनका काल अनुमानतः मंवत् १६०० से १६५६ तक का माना जा सकता है।
मन्त रत्नकीति उस समय पूर्ण युवा थे। उनकी सुन्दरता देखते ही बनती थी। जब वे धर्म-प्रचार के लिये विहार करते तो उनके अनुपम सौन्दर्य एवं विद्वता से सभी मुग्ध हो जाते । तत्कालीन विद्वान गणेश कवि ने म. रत्नकीति की प्रशंसा करते हुये लिखा है
अरघ शशि सम सोहे शुभ मालरे, वदन चामल शुभ नयन विशाल रे दशन दाडिम सम रसना रसाल रे, अपर बिवीफल विजित प्रवाल रे। कंठ कंबू सम रेखा त्रय राजे रे, कर किसलिय सम नख छवि छाज रे ।।
ने जहां भी विहार करते सुन्दरियां उनके स्वागत में विविध मंगल गीत गाती । ऐसे ही अवसर पर गाये हुये गीत का एक भाग देखिये
कमल वदन करुणालय कहीये, कनफ वरण सोहे कांत मोरी सहीय रे। कजल दल लोचन पापना मोचन
कलाकार प्रगटो विख्यात मोरी सहीय रे ।।
बलसाड नगर में मंत्रपति महिलदास ने जो विशाल प्रतिष्ठा करवायी थी बह रत्नकीति के उपदेश से हो सम्पन्न हुई श्री । मल्लिदास हूंबड जाति के श्रावक
१. अभयनन्द पाटे उदयो दिनकर, पंच महावत धारी।
सास्त्र सिधांत पुराण ए जो, सो तर्क वितर्क विचारी । गोमटसार संगीत सिरोमणि, जाणो गोयम अवतारो। साहा वेवदास फेरो सुत सुख कर सेजलदे उरे अवतारी। गणेश कहे तम्हो वंदो रे, भवियण कुमति कुसंग निवारी ॥२॥