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भट्टारक रत्नकीति
थे तथा अपार सम्पत्ति के स्वामी थे। इस प्रतिष्ठा में सन्त रत्नकीसि अपने स सहित सम्मिलित हुये थे तथा एक विद्याल जल याचा हुई थी जिसका विस्तृत वन तत्कालीन कवि जयसागर ने अपने एक गीत में किया है
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जलमात्रा जुगते जाय, त्याहा माननी मंगल गाय । संघपति मल्लिदास मोहंत, मंत्रवेश मोहरणदे कंत । सारी श्रृंगार सोलमु सार, मन धरयो हरणा अपार । च्याला जलयात्रा काजे, बाजित बहु विघ बाजे । वर ढोल निशान नफेरी, दष्ट गडी दमाम मुभेरी । सगाई सरूपा साद, भल्लरी कसाल सुनाद । बंधुक निशाण न फाट, बोले, विरद बहुविध माट । पालखी चामर शुभ छत्र, गजगामिनी नाचे विचित्र । घाट चुनडी कुंभ सोहावे, चंद्राननी श्रोटीन आहे ।
शिष्य परिवार
रत्नकत्ति के कितने ही शिष्य थे। वे सभी विद्वान एवं साहित्यप्रेमी थे इनके शिष्यों को कितनी ही कविताएं उपलब्ध हो चुकी हैं। कामें कुमुदचन्द्र गौश जय सागर एवं राघव के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। कुमुदचन्द्र को संवत् १६५६ में इन्होंने अपने पट्ट पर बिठलाया। ये अपने समय के समर्थ प्रचारक एवं साहित्य सेवी थे । इनके द्वारा रचित पद, गीत एवं अन्य रचनायें उपलब्ध हो चुकी है । कुमुदचन्द्र ने अपनी प्रायः प्रत्येक रचना में अपने गुरु रत्नकीति का स्मरण किया है। कवि गश ने भी इनके स्तन में बहुत से पद लिखे हैं- एक वर्णन पढिये
चदने चंद हरावयो सीझले जीत्यो अनंग | सुदर नयरा नीरखामे, लाजा मीन कुरंग । जुगल श्रवण शुभ सोभतारे नास्या सुकनी चंच | अधर अरूण रंगे ओपमा, दंत मुक्त परपंच |
जुहवा जतीणी जाणे सखी रे, अनोपम अमृत वेल । गोवा कंबु कोमलरी रे, उन्नत भुजनी बेल ।
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इसी प्रकार इनके एक शिष्य राघव ने इनकी प्रशंसा करते हुये लिखा हैं कि के खान मलिक द्वारा सम्मानित भी किये गये थे
लक्षण बत्तीस सकलागि बहोत्तरि खान मलिक दिये मान जी ।