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ब्रह्म रायमल्ल
परिचय दिया है । इसमें ८६५ पछ हैं, जो वस्तुबंध, वोहा और चौपई छन्दों में विभक्त हैं । भाषा राजस्थानी है।
कवि ने रचना के अन्त में अपना वही परिचय दिया है, जो उसने प्रथम रचना में दिया था । केवल नेमिश्वर रास चन्द्रप्रभ चैत्यालय में समाप्त हना था
और यह हनुमन्त राम, मुनिसुव्रतनाथ के चैत्यालय में । कवि ने रचना के प्रारम्भ में भी मुनिसुथतनाथ को ही नमस्कार किया है । काव्य शैली प्रयाहमय है और वह धारा प्रवाह चलती है । काव्य के बीच बीच में मूक्तियाँ भी वरिणत हैं।
दो उदाहरण देखिए
पुरिष बिना जो कामिनी होई, ताको प्रादर कर न कोई । चक्रवती की पुत्री होई, पुरिष बिना दुःख पावै सोई ।।७।।
नाना विधि भुजं इक कर्म, सोग कलेस आदि बह ममं । एक जन्म एक मर, एक जाइ सिधि सबरं ॥४७॥ 'रास' की भाषा का एक उदाहरण देखिए
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देखो सीता तरुनी छाह, रालि मुंदड़ी छोली माह । पड़ी मुबड़ी देखी सीया, अचिरज भयो जनक की घीया।।६०२।। लई मुदड़ी कट लगाई, जैसे मिल छनौ गाई । चन्द्र बदन सीय भयो मानन्द, जानिकि मिलीया दशरथनन्द ॥६०३।।
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३. प्रधान रास
कवि को यह तीसरी रचना है, जिसमें कृषा के पुत्र प्रद्युम्न का जीवन चरित्र वर्णित है । प्रद्युम्न १६६ पुण्य पुरुषों में से है । जन्म से ही उसके जीवन में विचित्र घटनाएं घटती हैं । पनेक यिद्यानों का वह स्वामी बनता है। वर्षों तक मुख भोगने के पश्चात् वह वैराय धारण कर लेना है और अन्त में आठों बमों का क्षय करके निर्वाण प्राप्त करता है । कवि ने प्रस्तुत कथा को १६५ कष्टा-बन्ध छन्दों में पुर्ण किया है 1 रास की रचना संवत् १६२८ भादवा सुदी २ को समाप्त हुई थी। रचना स्थान था गढ़ हरसोर- जिसे ब्रह्म रायमल्ल ने अपने धूलि करणों से पवित्र किया था । कवि के शब्दों में इस वर्णन को पड़िये -
हो सोलास अठबीस विचारो, भादव सुदि दृतिया बुधवारो।