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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व:
गढ़ हरसौर महा भलोजी, तिह में भला जिनसुर थान | श्रावक लोग बस भलाजी, देव शास्त्र गुरु रासै मान ॥१६॥
यह लघु कृति है जिसमें मुख्यतः काव्यत्व की ओर ध्यान न देकर कथा भाग को और विशेष ध्यान दिया गया है। प्रत्येक पद्य 'हो' शब्द से प्रारम्भ होता है : एक उदाहरण देखिए
हो कंचन माला बोहो दुख पायो, विद्या दोन्ही काम न सरीयो । ' बात दोउ करि बीगड़ी जी, पहली चित्ति न बात बिचारी ।। हरत परत दोन्यू गयाजी, कूकर साधी टाकर मारी ॥१९८।। हो पुत्र पांचस लीया बुलाय, मारो बेगि काम ने जाय । हो मन में हरव्या भयाजी, मग लेय बन क्रीड़ा चल्या ।।
मांभि. बावड़ी चंपियो जी, ऊपरि मोटो पाथर राल्यो तो ।।१८६।। ४. सुदर्शन रास
चारित्र के विषय में 'सेठ सुदर्शन' की कथा अत्यधिक प्रसिद्ध है । सेठ सुदर्शन" परम शांत एवं दृढ़ संयमी थावक ग्रे । संयम से व्युत नहीं होने के कारण उन्हें शुलो का प्रादेश मिला, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। लेकिन अपने चरित्र के प्रभाव से शूली भी सिंहासन बन गई । कवि ने इस रास को संवत् १६२९ में समाप्त किया था । इसमें २०० से अधिक छन्द हैं। काज्य साधारणतः अच्छा है।
५. श्रीपाल रास
रचनाकाल के अनुसार यह कवि की पांचवीं रचना है । इसमें 'श्रीपाल राजा' के जीवन का वर्णन है। से यह कथा 'सिद्ध चक्र पूजा' के महात्म्य को प्रकट करने के लिए भी कही जाती है । 'श्रीपाल' को सर्य प्रथम कुष्ट रोग से पीड़ित होने के कारण राज्य-शासन छोड़कर जंगम की शरण लेनी पड़ती है । दैवयोग से उसका विवाह मैना सुन्दरी से होता है, जिसे भाग्य पर विश्वास रखने के कारण अपने ही पिता का कोप- भाजन बनना पड़ता है । मैनासुन्दरी द्वारा उसका कुष्ट रोग दूर होने पर वह विदेश जाता है और अनेक राजकुमारियों से विवाह करके तथा अपार सम्पत्ति का स्वामी बनकर वापिस स्वदेश लौटता उसके जीवन में कितनी ही बाधाए माती हैं, लेकिन वे सब उसके अदम्य उ एवं सूझ-बूझ के कारण स्वतः ही दूर हो जाती हैं । कवि ने इसी कथा को अपने काव्य के २६७ पद्यों में चन्मोबद्ध किया है। रचना स्थान राजस्थान के सिद्ध गदरपथम्भोर है तथा