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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं वृतित्व
चहु दिसि बण्या मला बाजार, भरे पटोला मोतीहार । भवन उत्तग जिनेसुर तणा, सौभे चंदवो तोरण घणा ॥६१०|| राजा राजे भगवंतदास, राज कुवर सेवहि बहुतास । परिजा लोग सुखी सुख बास, दुखी दलिद्री पूरबै मास ॥११॥ श्रावग लोग बसे धनवंत, पूजा कहि जहि मरहंत ।
उपरा उपरी बर न काय, जिम अहिमिन्द्र सुर्ग सुखदाय ॥९१२॥
पूरा काव्य चौपई छन्दों में है, लेकिन कहीं कहीं वस्तु बंध तथा दोहा छन्दों का भी प्रयोग हुमा है । भाषा राजस्थानी है। वर्णन प्रवाहमय है तथा कथा रूप में लिखा हुआ है
भबस दत राजा सुकमाल, सुख सो जातन जाणं काल । घोड़ा हस्ती रथ प्रति घणा, उंट पालिक वर सत खणा ॥६१९।।
दल बल देस अधिक भण्डार छाड़ा से राजकुवार । छत्र सिंघासण दासी दास, सेवक बहु सोसरा खवास ॥६२०॥
७. परमहंस चौपई
यह रचना संवत् १६३६ ज्येष्ठ बुदौ १३ के दिन समाप्त हुई थी। कवि उस समय तक्षकगढ़ (टोडारायसिंह) में थे। यह एक रूपक काव्य है । छन्द संख्या ६५१ है । इसकी एक मात्र प्रति दौसा (जयपुर) के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। चौपई की अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है:
मूल संघ जग तारणहार, सरब गन्छ गरवो आचार । समलकीत्ति मुनिवर गुणवन्त, तास माहि गुणलहो न अन्त ।।६४०॥ तिहको अमृत नांव प्रतिचंग, रत्नकीति मुनिगुणा अभंग । अनन्तकोत्ति तास शिष्य जान, बोले मुख ते अमृतवान ।।६४१॥ तास शिष्य जिन परणालीन, ब्रह्म राइमल्ल बुधि को हीन । भाव-भेद तिहाँ थोड़ो लहो, परमहंस की चौपई कहो ॥६४२।। मधिको बोलो प्रन्यो भाव, तिहको पंडित करो पसाव । सदा होई सन्यासी मणं, भव भव धर्म जिनेसुर सणं ।।६४३।। सौलास छसोस बखान, ज्येष्ठ सावली तेरस जान । सोभवार सनीसरवार, ग्रह नक्षत्र योग शुभसार ।।६४४।।