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संत समतिकोत्ति
'सुमतिकीत्ति' नाम वाले अब तक विभिन्न सन्तों का नामोल्ले न हुआ है, लेकिन इनमें दो 'समणिनीति' एक ही समय में हए और दोनों ही अपने समय के अन्छ विद्वान् माने जाते रहे । इन दोनों में एक का 'भट्टारक ज्ञान भूषण के शिष्य रूप में और दूसरे का "मट्टारक शुभचन्द्र' के शिष्य रूप में उल्लेख मिलता है। आचार्य सकल मूषण' ले 'समतिकोत्ति' का भद्रारक शुभचन्द्र के शिष्य रूप में प्रपनी उपदेशरत्नमाला में निम्न प्रकार उल्लेख किया है :
मट्टारक-श्रीशुभचन्द्रमुरिस्तत्पट्टपकेनहतिश्मरश्मिः ।।
विद्यावंद्यः सफलप्रसिद्धी वादी भसिंहो जयतात्वरिठ्या ।।९।। पट्ट तस्य प्रीणित प्राणिवर्ग शांतोदांतः शीलशाली सुधीमान् । जीयात्सूरिः श्रीसुमत्यादिङ्गीतिः गच्छाधीशः कमुकान्तिकलावान् ॥१०॥
"सकल भूषण' ने 'उपदेशरत्नमाला' संवत् १६२७ में समाप्त कर दी थी और इन्होंने अपने-अापको 'सुमतिकीति' का 'गुरु भाई' होना स्वीकार किया है...
तस्याभूच गुरुनाता नाम्ना सकलभूषणः । सूरिजिनमते लोनमनाः संतोषपोषकः ॥८॥
'ब्रह्म कामराज' ने अपने 'जयकुमार पुराण' में भी 'सुमतिकोत्ति' को भ० शुभचन्द्र का शिष्य लिखा है :
तेभ्यः श्रीशुभचन्द्रः श्रीसुमतिकीति संयमी । गुणकी-ह्वया आसन् बलात्वारगणेश्वर: 1८11
इसके पश्चात् सं० १७२२ में रचित 'प्रा म्न-प्रबन्ध में म० देवेन्द्र कीति ने 'मी सुमतिकीत्ति को शुभचन्द्र का शिष्य लिखा है--
तेह पट्ट कुमुद पूरा समी, शुमचन्ट्र भवतार रे । न्याय प्रमाण प्रचंड थी, गुरुयादी जल दशमी रे ।। तस पट्टोघर प्रगटीया श्री समतिकीत्ति जयकार रे । तस पट्ट धारक मट्टारक गुरगकीति गगा गण धार रे ।।४।। एक दूसरे 'सुमति कीति' का उल्लेख भट्टारक नाम भूपण के शिष्य के रूप