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सन्त शिरोमणि वीरचन्द्र
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रचनाएं हैं। भावना के अन्त में कवि ने अपना परिचय भी दिया है, जो निम्न प्रकार है:
सूरि श्री विद्यानन्दजयो, श्री महिलभूषण मुनिचन्द्र । तस पार्टी महिमा निलो, गुरु श्री लक्ष्मीचन्द्र ॥९६॥
तेह कुलकमल दिवसपति, जपती यति वीरचन्द | सुरगतां मात ए भावना, पामीर परमानन्द ||७||
भावना में सभी दोहे शिक्षाप्रद है तथा सुन्दर भावों से परिपूर्ण है । कवि की कहने की शैली सरल एवं अर्थगम्य है। कुछ दोहों का भास्वादन कीजिए:
धर्म धर्म नर उच्चरे, न घरे धर्मनो ममं ।
धर्म कारन प्राणि हो, न गणं निष्ठुर कर्म ॥३॥
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धर्म धर्म सह को कहो, न गहे धमं तु नाम । राम राम पोपट पढे, बूझे न ते निज राम ||६||
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.X X धनपाले धनपाल ते, धनपाल नामें भिखारो |
लाछि नाम लक्ष्मी तणू, लाछि लाकड़ों वहे नारी ॥७॥
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दया बीज विराजे क्रिया, ते सपली श्रप्रमाण । शीतल संजल जल भर्मा, जेम चण्डाल न बारा ॥ १९ ॥
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धर्म मूल प्राणी दया, दया ते जीवनी माय । भाट भ्रांति न आणिए, भ्रांते धर्मनो पाय ॥२१॥
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'x प्राणि दया विरा प्राणी ने एक न हृदय होय । तेल न बेलू पलितां, सूप न तोय विलोय ॥२२॥
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X •फ विणू गान जिम, जिन विण ध्याकरणे. वारिण ।
न. सोहे धर्म दबा बिना, जिम भोया विरण पारि ॥ ३२ ॥
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