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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
है । यद्यपि वेलि काव्यत्व की दृष्टि से उतनी उच्चस्तर की रचना नहीं है, किन्तु माषा के अध्ययन की दृष्टि से यह एक अच्छी कृति है। इसमें दूहा,त्रोटक एवं चाल छंदों का प्रयोग हुपा है । रचना का अन्तिम भाग जिसमें कवि ने अपना परिचय दिया है, निम्न प्रकार है :
श्री मूलसंघे महिमा निलो, अने देवेन्द्र कीरति सूरि राय । श्री विद्यानंदि वसुधां निलो, नरपति सेवे पाय ॥१॥ तेह वारे उपयो गति, लक्ष्मीचन्द्र जेण आण । श्री महिलभूषण महिमा घणो, नमे ग्यासुदीन सुलतान ॥२॥ तेह गुरुचरणकमलनमी, अने वेल्लि रची है रसाल। श्री वीरचन्द्र सूरीवर कहें, गांता पुण्य अपार ॥३॥ जम्बूकुमार फेवली हवा, अमें स्वर्ग-मुक्ति दातार । जे मवियण भावें भाषसे, ते तरसे संसार ॥४॥
कवि ने इसमें भी रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं किया है।
३. जिन आंसरा
यह कवि की लघु रचना है, जो उदयपुर के उसी गुटके में संग्रहीत है। इसमें २४ तीर्थंकरों के एक के बाद दूसरे तीर्थकर होने में जो समय लगता है--उसका वर्णन किया गया है । काथ्य-सौष्ठव की दृष्टि से रचना सामान्य है। भाषा भी वही है, जो कवि की अन्य रचनाओं की है। रचना का अन्तिम भाग निम्न प्रकार है:
सत्य शासन जिन स्थामीनू, जेहने तेहने रंग। हो जाते वंयो मला, ते नर चतुर सुचंग ॥६॥ जर्गे जनम्यूशय रेहन, तेहन जीव्यू सार । रंग लागे बाने म, जिन शासनह मझार ७|| श्री लक्ष्मीचन्द्र गुरु मच्छपती, तिस पार्ट सार शृगार ।
श्री वीरचन्द्र मोरे कथा, जिन प्रांतरा उदार ॥ ४. संबोष सत्ताणु भावना
यह एक उपवेवामक कृति है, जिसमें ५७ पद्य हैं तथा सभी दोहों के रूप में हैं। इसकी प्रति मी उसपुर के उली गुटके में संग्रहीत है जिसमें कवि की अन्य