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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
किया सथा समाज को विजयकी त्ति एवं शुभचन्द्र जसे मेधावी विद्वान दिए । मौद्धिक एवं मानसिक उत्थान के अतिरिक्ता इन्होंने सांस्कृतिक पुनर्जागरगा में भी पूर्ण योग दिया । प्राज मी राजस्थान एवं गुजरात प्रदेश के सैकड़ों स्थानों के मंदिरों में उनके द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तियां विराजमान हैं। सह अस्तित्व की नीति को स्वयं में एक जन मानस में उतारने में उन्होंने अपूर्व सफलता प्राप्त की थी और सारे भारत को अपने विहार से पवित्र किया। देशवासियों को उन्होंने अपने उपदेशामृत का पान कराया एवं उन्हें बुराइयों से बचने के लिए प्रेरणा दी। ज्ञानभूषण झा व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था । श्रावकों एवं जनता को वश में कर लेना उनके लिए अत्यधिक मरन था। जब वे पर यात्रा पर निकलते तो मार्ग के दोनों ओर जनता कतार बाप खड़ी रहती और उनके श्रीमुख से एक दो शब्द सुनने को लालायित रहती । ज्ञानभूषण ने श्रावक धर्म का नैतिक धर्म के नाम से उपदेश दिया। अहिंसा सस्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य एब अपरिग्रह के नाम पर एक . देश विका, इन्हें जीवन सानो लिए वे घर घर जाकर उपदेश देते और इस प्रकार वे लोगों की शृद्धा एवं भक्ति के प्रमुख सन्त बन गए 1 श्रावक के दैनिक षट् कम को पालन करने के लिए वे अधिक जोर देते।
प्रतिष्ठाकार्य संचालन
भारतीय एवं विशेषतः जन संस्कृति एवं धर्म की सुरक्षा के लिये उन्होंने प्राचीन मंदिरों का जीर्णोधार, नवीन-मंदिर निर्माण, पञ्चकल्याणक-प्रतिष्ठायें, सांस्कृतिक समारोह, उत्सव एवं मेलों आदि के प्रायोजनों को प्रोत्साहित किया । ऐसे आयोजनों में वे स्वयं तो भाग लेते ही थे अपने शिष्यों को भी भेजसे एवं अपने भक्तों से भी उनमें भाग लेने के लिये उपदेवा देते ।
भट्टारक बनते ही इन्होंने सर्व प्रथम संवत् १५३१ में डूगरपुर में २३" x १८ अवगाहना वाले सहस्त्रकूट चैत्यालय की प्रतिष्ठा का सवालन किया, इनमें से ६ बैत्यालय तो डूंगरपुर के ऊडा मन्दिर में ही विराजमान हैं । इस समय डूंगरपुर पर रावल सोमदास का राज्य था। इन्हीं के द्वारा संवत १५३० फाल्गुण सुदी १० में आयोजित प्रतिष्ठा महोत्सव के समय को प्रतिप्यापित मूतियां जितने ही स्थानों पर मिलती हैं। -- --
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--- - १. संवत् १५३४ वर्षे फास्गुण सुदी १० गुरौ यो मूलसंघे भ. सकलकीति
तस्प? भ. श्री भवनकोत्तिस्त० भ. शानभूषणगुरूपदेशात् हूंवर शातीय साह वाइदो भार्या शिवाई सुत सा. जगा भगिनी बीरदास भगनी प्रनाबी भात्रेय सान्ता एते नित्यं प्रणमति ।