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मा विजयकोत्ति
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१. विजयकीर्ति स पटधारी, प्रगट्या पूरण सुखकार रे।
प्रद्युम्न प्रबन्ध : २.तिन पट विजयकीर्ति जैवत, गुरू अन्यमति परवत समान
:णिक चरित्र :
सांस्कृतिक सेवा
विजयकीर्ति का समाज पर जबरदस्त प्रभान होने के कारण समाज की गतिविधियों में उनका प्रमुख हाथ रहला था। इनके भट्टारफ काल में कितनी हो प्रतिष्ठाए हुई । मन्दिरों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार किया गया। इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक कार्यक्रमों के सम्पादन में भी इनका योगदान उल्लेखनीय रहा। सर्वप्रथम इन्होंने संवत १५५७.१५६० और उसके पश्चात संवत १५६१, १५६४,१५६८, १५७० प्रादि वर्षों में सम्पन्न होने वाली प्रतिष्ठाओं में भाग लिया और जनता को मार्गदर्शन दिया । इन संवतों में प्रतिष्टित मूर्तियां डूगरपुर, उदयपुर आदि नगरों के मन्दिरों में मिलती है । संवत् १५६१ में इन्होंने सम्यग्दर्शन, सभ्यज्ञान एवं सम्यकचारित्र की महत्ता को प्रतिष्ठापित करने के लिए रत्नत्रय की मूर्ति को प्रतिष्ठापित किया । १
स्वर्णकाल-विजयकीति के जीवन का स्वर्णकाल संवत् १५५२ से १५७० तक का माना जा सकता है । इन १८ वर्षों में इन्होंने देश को एक नयी सांस्कृतिक चेतना दी तथा अपने स्याग एवं तपस्वो जीवन से देश को आगे बढ़ापा । संवत् १५५७ में इन्हें भट्टारक पय अवदय मिल गया था। उस समय भट्टारक ज्ञानभूषण जीवित थे क्यों कि उन्होंने संवत् १५६० में 'तत्वज्ञान तरंगिगी' की रचना समाप्त की थी। विजयीति ने संमवतः स्वयं ने कोई कृति नहीं लिखी। वे ने पल अपने. विहार एवं प्रवचन से ही मार्ग दर्शन देते रहे । प्रतारक की दृष्टि से उनका काकी ऊंचा स्थान बन गया था और वे बहुत से राजाओं द्वारा मी सम्मानित थे । के शास्त्रार्थ एवं वाद विवाद भी करते थे और अपने अकाट्य तर्कों से अपने विरोधियों से अच्छी टक्कर लेते थे। जब वे बहस करने तो श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते और उनको तर्को को सुनकर उनके ज्ञान की प्रशंसा किया करते । भ. शुभचन्द्र ने अपने एक गीत में इनके शास्त्रार्थ का निम्न प्रकार वर्णन किया है
१. भट्टारक सम्प्रदाय पृष्ठ १४४ २. यः पूज्यो नुपम स्लिभैरवमहादेवेन्द्र मुल्यनृपः ।
षटतांगमशास्त्रकोवियमतिजामशचंद्रमा ।। भव्यांभोवहभास्कर: शुभकरः संसारविच्छेदकः । सो व्याछोविजया दिकी तिमुनियो भट्टारकाधीश्वरः । वही पृष्ठ १०