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भट्टारक शुभचन्द्र
शुभचन्द्र भद्वारक विजयकीति के शिष्य थे । वे अपने समय के प्रसिद्ध भट्टारक, साहित्य-प्रेमी, धर्म-प्रचारक एवं शास्त्रों के प्रबल विद्वान थे । अब वे भट्टारक बने उस समय भट्टारक सफलकोति, एवं उनके पट्ट शिष्य, प्रशिष्य भुवनकीति, ज्ञानभूपण एवं विजयकीर्ति ने अपनी सेवा, विद्वत्ता एवं सांस्कृतिक जागरूकता से इतना अच्छा वातावरण बना लिया था कि इन सस्तों के प्रति जैन समाज में ही नहीं किन्तु जनेतर समाज में भी अगाध श्रद्धा उत्पन्न हो चुकी थी। शुमचन्द्र ने भट्टारक ज्ञानभूपण एवं भट्टारक विजयकीति का शासनकाल देखा था। बिजयकीति के तो लाइले शिष्य ही नहीं थे किन्तु उनके शिष्यों में सबसे अधिक प्रतिभावान् सन्त थे। इसलिए विजयकीति की मृत्यु के पश्चात् इन्हें ही उस समय के सबसे प्रतिष्ठित, सम्मानित एवं आकर्षक पद पर प्रतिष्ठापित किया गया।
इनका जन्म संवत् १५३०-४० के मध्य कभी हुना होगा। ये जब बालक थे तभी से इनका इन मट्टारकों से सम्पर्क स्थापित हो गया। प्रारम्भ में इन्होंने अपना समय संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के ग्रन्थों के पढ़ने में लगाया । व्याकरण एवं छन्द शास्त्र में निपुणता प्राप्त की और फिर म. शानभूषरण एवं भ. विजयकीति के सानिध्य में रहने लगे । श्री वी. पी. जोहाकरपुर के मतानुसार ये संवत् १५७३ में भट्टारक बने ।' और वे इसी पद पर संवत् १६१३ तक रहे । इस तरह शुभचन्द्र ने अपने जीवन का अधिक भाग भट्टारक पद पर रहते हुये हो व्यतीत किया । बलात्कारगरण की ईडर शाखा की गद्दी पर इतने समय तक संभवतः ये ही भट्टारक रहे। इन्होंने अपनी प्रतिष्ठा एवं पद का खूब अच्छी तरह सदुपयोग किया और इन ४) वर्षों में राजस्थान, पंजाब, गुजरात एवं उत्तर प्रदेश में साहित्य एवं संस्कृति का उत्साहप्रद वातावरण उत्पन्न कर दिया।
शुभचन्द्र ने प्रारम्भ में खूब अध्ययन किया। भाषण देने एवं शास्त्रार्य करने की कला भी सीखी । भ. बनने के पश्चात् इनकी कीर्ति चारों ओर व्याप्त हो गयी राजस्थान के अतिरिक्त इन्हें गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के अनेक गाँध एवं नगरों से निमन्त्रण मिलने लगे । जनता इनके श्रीमुख से धर्मोपदेश सुनने को अधीर हो उठती इसलिये ये जहाँ भी जाते भक्त जनों के पलक पाबड़े बिछ जाते ।
१. देखिये भट्टारक सम्प्रवाम पृष्ठ संख्या १५८