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राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इनकी वाणी में अकर्षण या इसलिये एक ही बार के सम्पर्क में वे किसी भी अच्छे व्यक्ति को अपना भक्त बनाने में समर्थ हो जाते समय का पूरी तरह सदुपयोग करते । जीवन का एक भी क्षण व्यर्थ खोना इन्हें अच्छा नहीं लगता था । ये अपनी साथ ग्रंथों के ढेर के ढेर एवं लेखन सामग्री रखते। नवीन साहित्य के निर्मारण में इनकी अधिक रुचि थी। इनकी वित्ता से मुग्ध होकर भक्त जन इनसे निर्माण के लिये प्रार्थना करते और ये उनके आग्रह से उसे पूरा करने का प्रयत्न करते 1 अपने शिष्यों द्वारा ये ग्रंथों की प्रतिलिपियां करवाते और फिर उन्हें शास्त्र भण्डारों में विराजमान करने के लिये अपने भक्तों से आग्रह करते । संवत १५९० में ईटर नगर के जातीय श्रावकों ने व्र० तेजपाल के द्वारा पुण्याश्रव कथा कोश की प्रति लिया कर इन्हें भेंट की थी। संवत् १५६६ में डूंगरपुर के आदिनाथ चैत्यालय में इन्हीं के उपदेश से अंगप्रज्ञप्ति की प्रतिलिपि करवा कर विराजमान की गयी थी 1 चन्दना चरित को इन्होंने वाग्वर (बागड ) में निबद्ध किया और कातिकेयानुप्रक्षा टीका को संवत् १६१३ में सागवाडा में समाप्त की । इसी तरह संवत् १६१७ में पाण्डव-पुराणको हिसार (पंजाब) में किया गया ।
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वित्रता
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शुभचन्द्र शास्त्रों के पूर्ण मर्मज्ञ थे। ये षट् भाषा कत्रि- चक्रवत कहलाते थे । छह भाषाओं में संभवतः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती एवं राजस्थानी भाषायें थी। ये विविध विद्याधर (शब्दागग युक्त्यागम एवं परमागम) के अता थे। पट्टावल के अनुसार ये प्रमाण-परीक्षा पत्र परीक्षा, पुष्प परीक्षा (?) परीक्षासुख, प्रमाण - निर्णय, न्यायमकरन्द, न्यायकुमुदचंद्र न्याय विनिश्चय कार्तिक, राजवासिक, प्रमेयकमल मार्त्तण्ड, आप्तमीमांसा, अष्टसहस्रो चितामणिमीमांसा विवरण वाचस्पति, तत्त्व कौमुदी आदि न्याय ग्रन्थों के, जैनेन्द्र शाकटायन ऐन्द्र, पाणिनी, कलाप आदि व्याकरण ग्रन्थों के, त्रैलोक्यसार गोम्मसार, लक्ष्विसार, अपगातार त्रिलोकप्रज्ञप्ति, सुविज्ञप्ति अध्यात्माष्टसहस्त्री (?) और छन्दोंकार आदि महाग्रन्थों के पारगामी विद्वान् थे । '
शिष्य परम्परा
वैसे तो भट्टारकों के संघ में कितने ही मुनि, ब्रह्मचारी, साध्वियां तथा विद्वान्-गरण रहते थे । इसलिए इनके संघ में भी कितने ही साधु थे लेकिन कुछ प्रमुख शिष्य थे जिनमें सकलभूषरण, अ. तेजपाल, वर्णी क्षेमचंद्र, सुमतिकीत्ति, श्रीभूषण आदि के नाम उल्लेखनीय है। आषार्य सकलभूषण ने अपने उपदेश रत्नमाला में
१. देखिये नाथूरामजी प्रेमी कृत--जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ संस्था ३८३