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सन्त शिरोमणि वीरचन्द्र
भट्टारकीय बलात्कारगण शाखा के संस्थापक भट्टारक देवेन्द्रकीति थे, जो संत शिरोमणि भट्टारक पद्मनन्दि के शिष्यों में से थे। जब देवेन्द्रकोति ने सूरत में भट्टारक गादी की स्थापना की थी, उस समय भट्टारक सकलकीति का राजस्थान एवं गुजरात में जबरदस्त प्रभाव था और संभवतः इसी प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से देवेन्द्रकोति ने एक और नयी मट्टारक संस्था को जन्म दिया । भट्टारक देवेन्द्रफोसि के पीले एवं वीरचन्द्र के पहिले सीन श्रीर भट्टारक हुए जिनके नाम हैं विद्यानन्द ( ० १४६६ - १५३७ ), मल्लिभूषण (१५४४-५५ ) और लक्ष्मीचन्द्र ( १५५६ - ८२ ) | 'वीरचन्द्र' मट्टारक लक्ष्मीचन्द के शिष्य थे पश्चात् ये भट्टारक बने थे । यद्यपि इसका सूरतगादी से सम्बन्ध था, लेकिन ये राजस्थान के अधिक समीप थे और इस प्रदेश में सब बिहार किया करते थे ।
और इन्हीं की मृत्यु के
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'सन्त वीरचन्द्र' प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे । व्याकरण एवं न्याय शास्त्र के प्रकाण्ड वेसा थे । छन्द, अलंकार, एवं संगीत शास्त्र के मर्मज्ञ थे। वे जहां जाते अपने भक्तों की संख्या बढ़ा लेते एवं विरोधियों का सफाया कर देते | बाद-विवाद में उनसे जीतना बड़े २ महारथियों के लिए भी सहज नहीं था। वे अपने साधु जीवन को पूरी तरह निभाते और गृहस्थों को संयमित जीवन रखने का उपदेश देते। एक भट्टारक पट्टावली में उनका निम्न प्रकार परिचय दिया गया है.
"तदवंशमंडन- कंदर्प दर्पदलन- विश्वलोकहृदय रंजन महाव्रतीपुरंदराणां, नवसह्प्रमुखदेशाधिप राजाधिराजश्रीमर्जुनजीय राजसभामध्याप्त सन्मानानां षोडशवर्ष -. पर्यन्तशाकपाकपक्वान्नशात्योदना दिस पिप्रभृतिसरस हारपरिवजितानां, दुर्वारवादिसंगपर्वतीचूर्णीकरणवज्जायमानप्रथमव च नखंड नपंडितानों, व्याकरणप्रमेयक मलमात्तण्डछंदोलंकृतिसारसाहित्य संगीतसकलतर्कसिद्धान्तागमशास्त्रसमुद्रपारंगतानां मूलोत्तरगुरणगण मरिंग मंडित विबुध वर श्रीवीर चन्द्रमद्वारकाणां "
सकल
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नवसारी के
उक्त प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि वीरचन्द्र ने जीवराज से खूब सम्मान पाया तथा १६ वर्ष तक नीरस वीरचन्द्र की विद्वत्ता का इनके बाद होने वाले कितने ही
अहार का विद्वानों ने
है । भट्टारक शुभचन्द्र ने अपनी कात्तिकेयानुप्रक्षा की संस्कृत टीका में
में निम्न पद्य लिखा है :
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शासक अर्जुन
सेवन किया । उल्लेख किया इनकी प्रशंसा