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ब्रह्म बुचराज
मड़ा काव्य नहीं लिखा किन्तु अपनी लघु रचनामों में भी उन्होंने अपनी काव्य निर्माण प्रतिभा की स्पष्ट छाप छोड़ दी है। उनका कार्य क्षेत्र वागड़ प्रदेश एवं गुमरात प्रदेश का कुश्न माग था लेकिन इनको रचनाओं में गुजराती भाषा का प्रभाव नहीं के बराबर रहा है। कवि के हिन्दी काव्यों की भाषा संस्कृत निष्ठ है । कितने ही मुस्कृत के शब्दों का अनुस्वार सहित ज्यों का त्यों ही प्रयोग कर दिया गया है । वे किसी भी कथा एवं जीवन चरित को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत करने में दक्ष थे। महावोर छन्द, नेमिनाथ छन्द इसी श्रेणी की रचना हैं।
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संस्कृत काव्यों को दृष्टि से तो शुमचन्द्र को किमी भी दृष्टि में महाकवि से कम नहीं कहा जा सकता। उनके जो विविध चरित काम्य हैं उनमें काव्यगत सभी गुण पाये जाते हैं। उनके सभी काध्य सर्गों में विभक्त हैं एवं चरित काम्यों में अपेक्षित सभी गुण इन काव्यों में देखने को मिलते हैं। काव्य रचना के साथ साय ही उन्होंने कात्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत भाषा में टीका लिखकर अपने प्राकृत भाषा के ज्ञान का भी अच्छा परिचय दिया है। अध्यात्मतरंगिणी की रचना करके उन्होंने अध्यात्मवाद का मबार किया। वास्तव में जैन सन्तों की १७-१८ वीं शताम्दि तक यह एक विशेषता रही कि वे संस्कृत एव हिन्दी में समान गति से काव्य रचना करते रहे । उन्होंने किसी एक भाषा का ही पल्ला नहीं पकड़ा किन्तु अपने समय की प्रमुख भाषाओं में ही काव्य रचना करके उनके प्रचार एवं प्रसार में सहयोगी बने । म शुभचन्द्र प्रत्यधिक उदार मनोवृत्ति के साधु थे। उन्होंने अपने गुरू विजयकीत्ति के प्रति विभिन्न लधु रचनाओं में भाषभरी श्रद्धांजली अर्पित की है वह उनकी महानता का सूचक है। प्रब समम आगया है जब कवि के काम्यों की विशेषताओं का व्यापक अध्ययन किया जावे।