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सन्त शिरोमणि वीरचन्द्र
भट्टारकपदाधीशः मूलसंबे विदांवराः । रमावीरेन्द्र- चिद्रपः गुरवो हि नसोशिनः ॥१०॥
भ० सुमतिकीर्ति ने इन्हें वादियों के लिए अजेय स्वीकार किया है और उनके लिए वज्र के समान माना है। अपनी प्राकृत पंचसंग्रह की टीका में इनके यश को जीवित रखने के लिए निम्न पद्य लिखा है:
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दुरदुर्गादिकपतानां वज्रायमानो वरवीरचन्द्रः । तदन्वये सूरिवरप्रधान जानादिभूषो गणिगच्छराजः ||
इसी तरह 'म० वादिचन्द' ने अपनी सुभगसुलोचना चरित में वीरचन्द्र की विद्वत्ता की प्रशंसा की है और कहा है कि कौनसा मुर्ख उनके शिष्यत्व को स्वीकार कर विद्वान् नहीं बन सकता ।
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वीरचन्द्रं समाश्रित्य के मूर्खा न विदो मधन् । तं ( श्रमे ) त्यक्त सार्वन्न दीप्त्या निर्जितकावनम् ॥
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'वोरचन्द्र' जबरदस्त साहित्य सेवी थे । गुजराती के पारंगत विद्वान थे । यद्यपि अब तक उपलब्ध हो सकी हैं, लेकिन ही उनकी विद्वत्ता का हैं। इनकी रचनाओं के नाम निम्न प्रकार हैं
१. वीर विलास फाग
२. जम्बूस्वामी afte
३. जिन ओतरा
४. सीमंधरस्वामी गोत
वे संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी एवं उनकी केवल ८ रचनाएं हो परिचय देने के लिए पर्याप्त
५. संबोध सत्तार
६. नेमिनाथ रास
७. चित्तनिरोध कथा
८. बाहुबलि वेलि
१. वीर विलास फाग
'बीर विलास फाग' एक खण्ड काव्य है, जिसमें २२वें तीर्थकर नेमिनाथ को जीवन को एक घटना का वर्णन किया गया है। फाग में १३७ पद्य हैं। इसकी एक हस्तलिखित प्रति उदयपुर के खण्डेलवाल दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भर में संग्रहीत है । यह प्रति संवत् १६८६ में म० वीरचन्द्र के शिष्य भ० महीं चन्द के उपदेश से लिखी गयी थी। ब्र० ज्ञानसागर इसके प्रतिलिपिकार थे ।
रचना के प्रारम्भ में नेमिनाथ के सौन्दर्य एवं शक्ति का वर्णन किया गया है, इसके पश्चात् उनकी होने वाली परिन राजुल की सुन्दरता का वर्णन मिलता है। विवाह के अवसर पर नगर की शोभा दर्शनीय हो जाती है तथा वहां विभिन्न उत्सव