________________
भट्टारक
भट्टारक शुभचन्द्र का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया है और अपने आपको उनका शिष्य लिखने में गौरव का प्रभुभव किया है। यही नहीं करकुण्ड चरित्र को तो शुभचन्द्र ने सकल भूषण की सहायता से ही समाप्त किया था। वर्णी श्रीपाल ने इन्हें पाण्डवपुराण की रचना में सहायता दी थी। जिसका उल्लेख शुभचन्द्र ने ius की प्रशस्ति में सुन्दर ढंग से किया है:
६५
सुमतिकोलि इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके पट्ट शिष्य बने थे । ये भी प्रकांड विद्वान थे और इन्होंने कितने ही ग्रन्थों की रचना की थी। इस तरह इन्होंने अपने सभी शिष्यों को योग्य बनाया और उन्हें देश एवं समाज सेवा करने को प्रोत्साहित किया ।
प्रतिष्ठा समारोहों का संचालन
अन्य भट्टारकों के समान इन्होने भी कितनी ही प्रतिष्ठा समारोहों में भाग लिया और वहां होने वाले प्रतिष्ठा विधानों को सम्पन्न कराने में अपना पूर्ण योग दिया । भट्टारक शुभचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित धाज भी कितनी ही मूत्तियाँ उदयपुर, सागवाडा, डूंगरपुर, जयपुर आदि मन्दिरों में विराजमान हैं। पंचायतों की ओर से ऐसे प्रतिष्ठा समारोहों में सम्मिलित होने के लिए इन्हें विवित निमन्त्रण-पत्र मिलते थे । श्रीर में संघ सहित प्रतिष्ठाओं में जाते तथा उपस्थित जन समुदाय को धर्मोपदेश का पान क। ऐसे ही अवसरों पर वे अपने शिष्यों का कभी २ दीक्षा समारोह भी मनाते जिससे साधारण जनता मी साधु जीवन की ओर शरित होगी । संवत् १६०७ में इन्हीं के उपदेश से पश्च परमेष्टि की मूर्ति की स्थापना की गई थी।
'
इसी समय की प्रतिष्ठापित एक १२५ x ३० श्रवगाहना वाली नंदीश्वर द्वीप के त्यों की धातु को प्रतिमा जयपुर के लश्कर के मन्दिर में विराजमान है । यह प्रतिष्ठा सागवाडा में स्थित श्रादिनाथ के मन्दिर में महाराजाधिराज श्री ग्रासकरण के शासन काल में हुई थी। इसी तरह संवत् १५८१ में इन्हीं के उपदेश से बड
PHIM A 221100150922222VZ\\\WW
MITA
१. शिध्वस्तस्य समृद्धिबुद्धिषियो यस्तर्कवेशीवरो, वैराग्यादिविशुद्धि जनकः श्रीपालवर्णीमहान । संध्यालिपुस्तकं बरगुणं सत्पष्ठवानामिदं । तेनाखि पुराणमर्थनिक पूर्व वरे पुस्तकें ||
१. संवत् १६०७ वर्षे वैशाख वदो २ गुरु भी मूलसं भ० श्री शुभचन्द्र गुरुपदेशात् हूड संवेश्वरा गोत्रे सा० जिना
भट्टारक सम्प्रदाय - पृष्ठ संख्या १४५