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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
के भावों की ऐसी व्याख्या अन्यत्र मिशना कठिन है । ग्रन्थ में १२ अधिकार हैं । प्रत्येक अधिकार में एक २ भावना का वर्णन है । ४. जोबम्पर धरित्र
यह इनका प्रबन्ध काव्य है जिसमें जीवन्धर के जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है । काव्य में १३ सर्ग हैं । कवि ने जीवश्यर के जीवन को धमकथा के नाम से सम्बोधित किया है । इस की रचना संवत् १६०३ में समाप्त हुई थी। इस समय शुभचन्द्ध किसी नवीन नगर में बिहार कर रहे थे । नगर में चन्द्रप्रम जिनालय था और उसी में एक समारोह के साथ इस काव्य की समाप्ति की थी।
५. चन्द्रप्रभ चरित्र
चन्द्रप्रभ पाठवें तीर्थकर थे । इन्हीं के पावन चरित्र का कवि ने इस काव्य के १२ सगों में वर्णन किया है । काव्य के अन्त में क्रांव ने अपनी लधुता प्रदायांत करते हुए लिखा है कि न तो वह छन्द अलंकारों से परिचित है और न काव्य-शास्त्र के नियमों में पारंगत है । उसने न जैनेन्द्र व्याकरण पढ़ी है, न कलाप एवं शाकटायन व्याकरण देखी है । उसने त्रिलोकसार एवं गोम्मटसार जैसे महान ग्रंथों का अध्ययन भी नहीं किया है । किन्तु रखना भक्तिवश की गई है।
६. चन्दना-चरित्र
यह एक कथा काध्य है जिसमें सती चन्दना के पावन एवं उज्ज्वल जीवन का वर्णन किया गया है । इसके निमरिण के लिए कितने ही शास्त्रों एवं पुराणों का अध्यन यन करना पड़ा था। एक महिला के जीवन को प्रकाश में लाने वाला यह संभवतः प्रथम काश्य है । काव्य में पांच सौ हैं। रचना साधारणतः अच्छी है तथा पतन योग्य है । इसकी रचना बागर प्रदेश के डूंगरपुर नगर में हुई थी -
शास्त्रण्यनेकान्यवमाह्य कृत्वा पुराणसल्लक्षणकानि भूयः । सच्चंदना चारू चरित्रमेतत् 'चकार च श्री शुभचन्द्रदेवः ।।९५।।
वाग्वरे वाग्बरे देशे, वाम्बर विदित क्षिती। चंदनाचरितं चक्र, शुमचन्द्रो गिरीपुरे ॥२०६५
४. श्रीमन् विक्रम भूपतेवंसुहत हूँतेशते सप्तह,
बेबन्यूनतरे समे शुभतरेपि मासे परे च शुचौ । वारे गीष्यतिके त्रयोदश तिथौ सन्नुतने पत्तने । श्री चन्द्रप्रभधाम्नि व विरचित चेवमया तोषयतः ॥७॥