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संत कवि यशोधर
एक नाचि एक गाइ गीत, एक रोइ एक हरधि पित्त । एक नासि एक उडलि घरि एक सुइ एक क्रीडा करि ॥८३॥
परि नगरी अवि जिसि, द्विपायन मुनि दीक्षु तिसि । कोप करोनि ताडि ताम, देर गालवली लेई नाम ॥८४॥
द्वीपाचन ऋषि के शाप से द्वारिका जलने लगी और श्रीकृष्ण जी एवं बलराम अपनी रक्षा का कोई अन्य उपाय न देखकर वन की शोर बले गये। वन में श्री कृष्ण को प्यास बुझाने के लिए बलभद्र जल लेने चले गये पीछे से जरदकुमार ने मोते हुये श्रीकृष्ण को हरिण समझ कर वाण मार दिया। लेकिन जब जरदकुमार को मालूम हुआ तो वे पश्चाताप की अग्नि में जलने लगे। भगवान कृष्ण ने उन्हें कुछ नहीं कहा और कर्मों की विडम्बना से कौन बच सकता है यही कहकर धैर्य वारण करने को कहा
कहि कृष्ण सुहि जराकुमार, मूढ परिण मम बोलि गमार
संसार तरी गतिविषमी होय होयडा माहि विचारी जोड ।।११२ ॥
करमि रामचन्द व नंगल, कम सोता हराज भउ । करमि रावगा राज ज टली, करभि लक विभीषण फली ॥ ११३ ॥
हरचन्द राजा साहस धीर, करमि ग्रषमि घरि प्राधु वीर करमिनल नर चुकु राज, दमयन्तो वनि की भी त्याज ॥ ११४ ॥
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इतने में बहीं पर बलभद्र आ गये और श्री कृष्ण जी को सोता हुआ जानकर जाने लगे । लेकिन वे तब तक प्राणहीन हो चुके थे । यह जानकर बलभद्र रोने लगे तथा अनेक सम्बोदनों से अपना दुःख प्रकट करने लगे । कवि ने इसका बहुत ही मार्मिक शब्दों में वरन किया है ।
जल विा किम रहि माछलु, तिभ तुहा विरतु बंध |
विरोड़ वनउ सासीद, असला रे संघ ॥ १३०॥
उक्त रचनाओं के प्रतिरिक्त वराभ्य गीत विजय कीर्ति गीत एवं २५ से भी अधिक पद उपलब्ध हो चुके हैं। अधिकांश पदों में मिराज के वियोग का कथानक हैं जिनमें प्रेम, विरह एवं शृंगार की हिलोरें उठती हैं। कुछ पद वैराग्य एवं जगत् की वस्तु स्थिति पर प्रकाश डालने वाले है ।
मूल्यांकन
'ब्रह्म यशोधर' की अब तक जितनी कृतियां उपलब्ध हुई हैं, उनसे वह स्पष्ट है कि वे हिन्दी के अच्छे विद्वान थे। उनकी काव्य शैली परिमार्जित थी। वे किसी