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संत कवि यशोधर
श्रीकृष्ण जी को अकेला छोड़कर पानी लेने गये थे, वापिस थाने पर जब उन्हें मालूम हुआ तो वे बड़े शोकाकुल हुए एवं रोने लगे और अपने भाई के मोह से छह मास तक उनके मृत शरीर को लिए घूमते रहे। अन्त में एक मुनि ने जब उन्हें संसार की असारता बतलाई तो उन्हें भी वैराग्य हो गया और अन्त में तपस्या करते हुए निर्वाण प्राप्त किया । छोपई की सम्पुर्ण कथा जैन पुराणों के आधार पर निबद्ध है |
चौपई प्रारम्भ करने के पूर्व सर्व प्रथम कवि ने अपनी लघुता प्रगट करते हुए लिखा है कि न तो उसे व्याकरण एवं छंद का बोध है और न उचित रूप से अक्षर ज्ञान ही है । गीत एवं कवित्त कुछ आते नहीं हैं लेकिन वह जो कुछ लिख रहा है वह सब गुरु के प्राशीर्वाद का फल है
न लड्डु व्याकरण नहुन् स अक्षर नहु हू मूरख मानव मतिहीन, गीत कवित्त नवि जा सूरज ऊम् तम हरि, जिय जलहर बुढि ताप । शुरु वय पुण्य पामीर, झडि भवंतर पाप ॥५॥ नूरख परिण जे मति लहि, करि कवित अतिसार । ब्रह्म यशोधर इम कहि ते सहि गुरु उपगार ॥६॥
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भिन्द कही ||२||
उस समय द्वारिका बंभव पूर्ण नगरी थी। इसका विस्तार १२ योजन प्रमाण था । वहां सात से तेरह मंजिल के महल थे। बड़े बड़े करोड़पति सेठ वहां निवास करते थे। श्री जी मानकों को दान देने में हर्षित होते थे, अभिमान नहीं करते थे। वहां चारों ओर बोर एवं योद्धा दिखलाई देते थे। सज्जनों के अतिरिक्त दुर्जनों का तो वहां नाम भी नहीं था ।
कवि ने द्वारिका का वर्णन निम्न प्रकार किया है
नगर द्वारिका देश मझार, जाणे इन्द्रपुरी अवतार । बार जोयरण ते फिर तुवसि ते देखी जन मन उलसि || ११ || नव खरा तेर खणा प्रासाद हह् श्ररिंग सम लागु वाद । acter तिहां रही धरणा, रत्न लेम हीरे नहीं मा ||१२||
याचक जननि देइ दान, न हीयडि ह्रष नहीं अभिमान । सूर सुभट एक दोसि घरा, सज्जन लोक नहीं दुजंगा ||१३|| जि भवने घज बड फरहरि, शिखर स्वर्गं सुवातज करि । हेम मूरति पोढी परिमाण, एके रत्न अमूलिक जाण || १४ ||