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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
द्वारिका नगरी के राजा थे श्रीकृष्ण जी जो पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान सुन्दर थे । वे छप्पन करोड़ यादवों के अधिपति थे । इन्हीं के बड़े भाई थे वलभद्र । स्वर्ण के समान जिनका शरीर था । जो हाथी रूपी पात्रों के लिए सिंह थे तथा हल जिनका आयुब था। रेवती उनकी पटरानी थी। बड़े २ वीर एवं योद्धा उनके सेवक थे। वे गुणों के मण्डार तथा सत्यवती एवं निर्मल-धरित्र के धारण करने वाले थे
तस बंधव अति ज्या रोहिए जेहनी मात । बलिभद्र नामि जागयो, वसुदेव तेहनु तात ।।२८।। कनक वर्ण सोहि जिसु, सत्य शील तनुवास । हेमघार वरसि सदा, ईसा पूरि आस ।।२९।। अरीयण मद गज केदारी, हल आयुध करिसार । सुहाइ सुभट सेवि सदा, गिरुउ गुण मंडार ||३०|| पट राणी तस रेवती, शील सिरोमगि देह ! धर्म धुरा झालि सदा, पतिसुप्रबिहउ नेह् ॥३१||
उन दिनों नेमिनाथका विहार भी उधर ही हुआ। द्वारिका की प्रजा ने नेमिनाथ का खूब स्वागत किया। भगवान श्रीकृष्ण, बलभद्र आदि राभो उनकी वंदना के लिए उनकी समागृह में पहुँचे । बलभद्र ने जब द्वारिका नगरी के बारे में प्रश्न पूछा तो नेमिनाथ ने उसका निम्न शब्दों में उत्तर दिया
दहा-सारी वाणी संभली, बोलि नेमि रसाल ।
पूरव मवि अक्षर लखा, ते किम थाइ पाल ||७१।। चुपई–दीपायन मुनिवर जे सार, ते करसि नगरी संधार ।
मद्य भांड जे नामि वही, तेह थको वली जलमि सही । पौरलोक सबि जलसि जिसि, चे बंधन नीकमसु तिसि । ता सहोदर जरा कुमार, ते नि हाथि मारि मोरार || बार बरस पूरि जे तलि, ए कारण होसि ले तलि । जिण्यर वाणी प्रमीय समान, सुरणीय कुमर तव चाल्यु रानि ।।८।।
बारह वर्ष पश्चात् वही समय पाया | कुछ यादवकुमार अपेय पदार्थ पीने से उन्मत्त हो गए । न्ने नाना प्रकार की क्रियायें करने लगे । द्वीपायन मुनि को जो बन में तपस्या कर रहे थे वे देखकर चिहाने लगे।
तिरिण अवसरि ते पीछू नौर, विकल रूप ते थया शरीर । ते परवत था पीछावलि, एकि विसि एक घरणी टलि ॥८२।।