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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
यह संजम असिवर अशी, सिसु ऊपरि पगु देहि । रे जीय मूढ न जाएही, इव कत्रु किन सीहह्येहि ॥ १२४ ॥
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उद्दिमु सासु वीरु वलु, बुद्धि पराकमु जाणि 1
ए छह जिनि मनि दिनु किया, ते पहुँचा निरवाणि ।। १३१ ।।
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दीपक राग के तथा
'चेतन पुदगल धमाल' में है, जिनमें १३९ प शेष ५ पद्य मष्ट पर छप्पय छन्द के हैं । कवि ने इस रचना में अपने दोनों ही नामों का उल्लेख किया है। रचना काल का इसमें कहीं उल्लेख नहीं हुआ है किन्तु संभवतः यह कृति रचनाएं संवत् १५९१ के बाद की लिखी हुई हैं क्योंकि भाषा एवं शैली की दृष्टि में इसका रूप अत्यधिक निखरा हुआ है। धमाल का अन्तिम पद्म निम्न प्रकार है.....
जिय मुकति सरूपी, तु निकल मलु राया । इसु जड के संग ते भमिया करमि ममाया
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टिकवल जिवा गुरिण, तजि कम संसारो । मजिजिरा गुरण हीयडे, तेरा याहू बिवहा । विवहास यह तुझ जारिण जीयडे करहु इंदिय सवरो । निरजर बंधण कम्मं केरे, जान तनि दुकाजरो ।।
जे वचन श्री जिए वीरि भासे, ताह नित धारह हीया । व भग वृचा सदा निम्मल, मुकति राख्मी जीया ॥ १३६ ॥
४. टंडाणा गीत
यह एक उपदेशात्मक गीत है। जिसका प्रधान विषय " इसि संसारे दुःख भंडारे क्या गुण देखि लुभारणावे" है । कवि ने प्राणी मात्र को संसार से सजग रहते हुए शुद्ध जीवन यापन करने का उपदेश दिया है क्योंकि जिस संसार ने उमे अनादि काल से ठगा है, फिर भी यह प्राणी उसी पर विश्वास करता रहता है |
गीत की मापा शुद्ध हिन्दी है, जो प्रपभ्रंश के प्रभाव से रहित है । कवि ने रचना में अपने नामोल्लेख के अतिरिक्त और कोई परिचय नहीं दिया है।
सिघि सरूप सहज ले खावे, घ्यावे अंतर झाणावे ।
जंपति बूचा जिय तुम पाव, चंछित सुख निरवारणावे ॥ १५ ॥