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ब्रह्म पराज
रचना का नाम 'टंडारणा गीत' प्रारम्भिक पद्य के कारण दिया गया है । पैसे टंडारणा शब्द यहाँ संसार के लिये प्रयुक्त हुमा है। टंडाणा, टांडा शब्द से बना है, जिसका अर्थ व्यापारियों का चलता समूह होता है। संसार भी प्राणियों के समूह का ही नाम है, जहां सभी वस्तुएं अस्थिर हैं।
गीत के छन्द पाठकों के अवलोकनाथं दिये जा रहे हैं.... मात पिता सुत सजन मरीरा, दुहु सब लोगि विराणावे । इयण पंख जिमि तरषर वास, दसहुँ दिशा उडाणाये ।। विषय स्वारथ सब जग बछे, करि करि बुधि विनारणावे ।
छोष्टि समाधि महारस नूपम, मधुर विदु लपटारगावे ॥
इसकी एक प्रति जयपुर के शास्त्र भण्डार दि. जैन मन्दिर गोधा के एक गुटके के संग्रह में है। ५. नेमिनाथ वंसतु
यह वसत आगमन का गीत है । नेमिनाथ विवाह होने से पूर्व ही तोरण द्वार से सीधे गिरनार पर जाकर तप धारण कर लेते हैं। राजुल को लाख समझाने पर भी वह दूसरा विवाह करने को तैयार नहीं होती और वह भी तपस्विनी का जीवन यापन का निश्चय कर लेती है। इसके बाद वसन्त ऋतु प्राती है 1 राजुल तपस्विनी होते हुए भी नवयौवना थी। उसका प्रथम अनुभव कैसा होगा, इसे कवि के शब्दों में पढ़िए....
अमृत अंबु लउ मोर के, नेमि जिणु गढ़ गिरनारे। म्हारे मनि मधुकर निह वसइ, संजमु कुसमु महारो ॥२॥
सखिय वसंत सुहाल रे, दीसइ सोरठ देसो। । कोइल कुहकह, मधुकर सारि सब वह पइसो १३२॥
विबलसिरी मह महकैदरे, भंवरा रुणझुणु कारो। गावहि गति स्वरास्वरि, गंधव गढ गिरनारे ॥४॥
लेकिन नेमिनाथ ने तो साधु जीवन अंगीकार कर लिया था और वे मोक्ष लक्ष्मी का वरण करने के लिए तैयारी कर रहे थे, इसलिये वे अपने संयम के साथ फाग खेल रहे थे। क्षमा का वे पान चबाते और उससे राग का उगाल निकालते 1
मुक्ति रमरिण रंगि रातेउ, नेमि जिणु चेलइ फागो। सरस तंबोल समा रे, रासे राग उगालो ।