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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कवि ने प्रारम्भिक मंगलाचरण के पश्चात काव्य के मुख्य विषय को पाठकों के समक्ष निम्न शब्दों में उपस्थित किया है
पंच प्रमिाटो वल्ह कवि, ए परमो धरिभाउ । वेतन पुद्गल दहूक, सादु विवादु सुणावी ॥३२॥
प्रारम्भ में नेतः दाद जि को कार सारे हाट कहना है कि जड़ पदार्थ से किसी को प्रीति नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह स्वयं विध्वंसनशील है । जड़ के साथ प्रम बढ़ाकर अपने अपका उपकार सोचना सर्प को दूध पिलाकार उससे अन्छे स्वभाव की प्राशा करने के समान है।
जिनि कारि जाणी आपणी, निश्चे वूला होइ। खीर पया विसहरि मुले, ताते क्या फल होई ॥३७|| चेतन के प्रश्न का जड़ ने जो सुन्दर उत्तर दिया उसे कवि के शब्दों में पलिएचेतन चेति न चालई, कहनत माने रोसु । आये बोलत सो फिरे, जड़हि लगाबइ घोसु ।।३८]
छह रस भीयण विधिह परि, जो जह नित सोचेइ । इन्दो होवहि पड़बड़ी, तव पर घम्भु चले ।।४।।
इस प्रकार पूरा रूपक संवाद पूर्ण है, चेतन और पुद्गल के सुन्दर विवाद होता है। क्योंकि जड़ और चेतन का सम्बन्ध अनादिकाल से चला पा रहा है वह उसी प्रकार है, जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि एवं सिलों में सेल रहता है ।
जिउ वसन्दरु कट्ठ महि, तिल महि तेलु भिजेउ ।
आदि अनादिहि जारिगये, चेतन पुद्गल एष ॥५४॥
एक प्रसंग पर चेतन पदार्थ जड़ से कहता है कि उसे सईव दूसरों का भला करना चाहिए । यदि अपना बुरा होता हो तो भी उसे दूसरों का भला करना चाहिए।
भला करन्तिहि मीत सुणि, जे हुइ बुरहा जाणि । तो भी भला न छोड़िये, उत्तम यह परवाणु ।।७०॥ लेकिन इसका पुद्गल के द्वारा दिया हुआ उत्तर भी पढिए। . भला भला सहु को कहे, मरमु न जाणे कोइ । काया सोई मीत रे, भला न किस ही होह ॥७१।।