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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
वादीय वाद ब्रिटंब वादि मिगाल मद गंजन | वादोय कुंद कुवाल बादि श्रध्यनन रोकन | बादि तिमिर हर भूरि, बारि नीर सह् सुधाकर 1 वादि विटंबन वीर बादि निगारण गुण सागर ।
वादीन विबुधसरसति गति मूलसंधि दिगंबर रद्द |
कहि ज्ञानभूषण तो पट्टि श्री विजयकोति जागी यतिवरह ||
इनके चरित्र ज्ञान एवं संयम के सम्बन्ध में इनके शिष्य शुभचन्द्र ने कितने ही
पद्य लिखे हैं उनमें से कुछ का रसास्वादन कीजिये ।
सुरतर सग भर चारुचंद्र चर्चित चरावय । समयसार का सार हंस भर चितित चिन्मय | दक्ष पक्ष शुभ मुक्ष लक्ष्य लक्षण प्रतिनायक ज्ञान दान जिनगान अर्थ चातक जलदायक कमनीय मूर्ति सुंदर सुकर धम्म दार्म कल्याशा कर । जय विजयकोति सुरीश कर श्री श्री वर्द्धन सीय वर ॥१७॥ विशद विसंवद वादि वरन कुंड गंरु भेषज ।
दुर्नय बनद समीर वीर वंदित पद पंकज । पुन्य गोधि सुचंद्र चंद्र चामीकर सुन्दर | स्फुति कोति वात मूर्ति सोभित सुभ संवर संसार संघ बहु दयी हर नागरमनि चारित्र धरा । श्री विजयकीति सूरीस जयबर श्री वर्द्धन पंकहर ||८|
'म' विजयकीत्ति' के समय में सागवाड़ा एवं नोतनपुर की समाज दो जातियों में विभक्त थी । 'विजयकोत्ति' वड़साजनों के गुरु कहलाने लगे थे। जब वे नोतनपुर आये तो विद्वान श्रावकों ने उनसे शास्त्रार्थं करना चाहा लेकिन उनकी विद्वता के सामने वे नहीं ठहर सके । २
शिष्य परम्परा
'विजयकीत्ति' के कितने ही शिष्य में । उनमें से भ. शुभचन्द्र, नुचराज, ब्र यशोधर आदि प्रमुख थे । वृचराज ने एक विजयकीत्ति गीत लिखा है, जिसमें विजयकीति के उज्ज्वल चरित्र की अत्यधिक प्रशंसा को गई है । वे सिद्धान्त के मर्मज्ञ थे
१. तिणि दिव खिसाजनि सागवाड़ सोतिमायन प्रतिष्ठा श्री विजयकस कोनी |
२. यही
"भट्टारक पट्टावलि, शास्त्र भण्डार डूंगरपुर ।