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मदारक ज्ञानभूषण
किरा आधार पर निर्धारित किया है इसका कोई उल्लेख नहीं किया। श्री नाथूराम प्रमी ने भी 'जैन साहित्य और इतिहास में इनके काल के संबन्ध से कोई निश्चित मत नहीं लिखा । केवल इतना हो लिखकर छोड़ दिया कि विक्रम सवत १५३४-३५ और १५३६ के तीन प्रतिमा लेख और भी हैं जिनसे मालूम होता है कि उक्त संयतों में ज्ञानभूषण मट्टारक पद पर थे। डा० प्रेमसागर ने अपनी ''हिन्दी जैन भक्ति काव्य भौर कवि" 5 में इनका भट्टारकः काल संवत १५३२-५७ तक समय स्वीकार किया हैं 1 लेकिन हँगरपुर वाले लेख से यह स्पष्ट है कि ज्ञानभूषण संवत् १५३१ अथवा इससे पहिले भट्टारक गादी पर बैठ गये थे। इस पद पर वे संवत् १५५७-५८ तक रहे । संवत १५६० में उन्होंने तत्वज्ञान तरंगिणी की रचना समाप्त की थी इसकी पुष्पिका में इन्होंने अपने नाम के पूर्व 'मुमुक्ष' शब्द जोड़ा है जो अन्य रचनामों में नहीं मिलता । इससे ज्ञात होता है कि इसी वर्ष अथवा इससे पूर्व ही इन्होंने भट्टारक पद छोड दिया था।
संवत् १५५७ तक ये निश्चित रूप से भट्टारक रहे। इसके पश्चात इन्होंने अपने शिष्य विजयकोत्ति को भट्टारक पद देकर स्वयं साहित्य साधक एवं मुमुक्ष बन गये । वास्तव में यह भी उनके जीवन में उत्कृष्ट त्याग था क्योंकि उस युग में मट्टारकों की प्रतिष्ठा, मान सम्मान बड़े ही उच्चस्तर पर थी। मट्टारकों के कितने ही शिष्य एवं शिष्याएं होती थीं, धावक लोग उनके विहार के समय पलक पावड़े बिछाये रहते थे तथा सरकार की ओर से भी उन्हें उचित सम्मान मिलता था। ऐसे उच्च पद को छोडकर फेवल प्रात्म बितन एवं साहित्य साधना में लग जाना ज्ञानभूषण जैसे सन्त से ही हो सकता था।
मानभूषण प्रतिमापूर्ण सापक थे । उन्होंने आत्म साधना के अतिरिका ज्ञानाराधना, साहित्य साधना, सांस्कृतिक उत्थान एवं नैतिक धर्म के प्रचार में अपना संपूर्ण जोवन खपा दिया । पहिले उन्होंने स्वयं । अध्ययन किया और शास्त्रों के गम्भीर अर्थ को समझा। तत्वज्ञान की गहराइयों तक पहुँचने के लिए व्याकरण, न्याय सिद्धान्त के बड़े २ मंथों का स्वाध्याय किया और फिर साहित्य-सृजन प्रारम्भ किया । सर्व प्रथम उन्होंने रतवन एवं पूजाष्टक लिखे फिर प्राकृत अधों की टीकाए 'लिखी । रास एवं फागु माहित्य की रचना कर साहित्य को नवीन मोड़ दिया और अन्त में प्रपने संपूर्ण ज्ञान का निचोड़ तत्वज्ञान तरंगिणी में डाल दिया ।
साहित्य सृजन के अतिरिक्त मैकड़ों ग्रयों को प्रतिलिपियां करवा कर साहित्य के भाडारों को भरा तथा अपने शिष्य प्रशिष्यों को उनके अध्ययन के लिए प्रोत्साहित amrawwarananewwwwmarwarermirmiranmanna
१. देखिये हिन्दी जन भक्ति काध्य और कवि-7ष्ट संख्या ७३