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भट्टारक ज्ञानभूषण
नारी बिसहर लेल. नर वंचेवाए घडीए । नारीय नामज मोहल, नारी नरक मतो तडए ।
कुटिल पणानी खारिण, नारी नीचह गामिनीए । सोनु न बोलि वारिण, वांधिरण सापि अगनि शिखाए ।
एक स्थान पर 'आवार्य सोमकीति' ने आत्महत्या को बड़ा भारी पाप बलाया और कहा - "प्रातम हित्या पाप शिरदंता लागसि "
इस प्रकार 'आ सोमकीत्ति' अपने समय के हिन्दी एवं संस्कृत के प्रतिनिधि कवि थे इसलिए उनकी रचनाओं को हिन्दी साहित्य में उचित सम्मान मिलना चाहिए ।
भट्टारक ज्ञानभूषरण
अब तक की खोज के अनुसार ज्ञानभूषण नाम के चार भट्टारक हुए हैं । इसमें सर्व प्रथम भ सकलकीति की परम्परा में भट्टारक भुवनकीति के शिष्य थे जिनका विस्तृत वर्णन यहां दिया जा रहा है। दूसरे ज्ञानभूषण भ. वीर चन्द्र के शिष्य थे जिनका सम्बन्ध सूरत शाखा के भ. देवेन्द्रकोति की परम्परा में था । संवत् १६०० से १६१६ तक भट्टारक रहे। तीसरे ज्ञानभूपण का सम्बन्ध अटेर शाखा से रहा था और इनका समय १७ वीं शताब्दि का माना जाता है। और चौथे ज्ञानभूषण नागौर जाति के भट्टारका रत्नकीति के शिष्य थे। इनका समय १८ वीं शताब्दि का अन्तिम चरण था ।
प्रस्तुत भ ज्ञान तुम्मा पहिले भ. विमलेन्द्र फोति के शिष्य थे और बाद में इन्होंने भ. भुवनकीसि को भी अपना गृह स्वीकार कर लिया । ज्ञानभूषण एवं जान कीत्ति दोन हीरा भाई एवं गुरु भाई थे और वे पुर्वी मोलालारे जाति के श्रावक थे। लेकिन संवत् १५३५ में सागवाड़ा एवं नोग्राम में एक साथ तथा एक ही दिन आयोजित होने के कारण हो भट्टारक परम्पराएं स्थापित हो गयी। सागवाड़ा में होने वाली प्रतिष्ठा के सचालक थे भ. ज्ञानभूषण और नोगाम की प्रतिष्ठा महोत्सव का सचालन ज्ञानकति ने किया । यहाँ से म ज्ञानभूषण बडसाजनों के भट्टारक माने जाने लगे और भ ज्ञानकीति लोहड़साजनों के गुरु कहलाने लगे । १
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देखिए भट्टारक पट्टावलि - शास्त्र भण्डार भ. यशः कीत्ति वि जैन सरस्वती भवन ऋषभदेव (राज)