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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व
की रूपरेखा पर लिखा हुआ जान पड़ता है। इसकी एक प्रति जयपुर के बाबा दुलीचन्द के शास्त्र भंडार में संग्रहीत है लेकिन प्रति अपूर्ण है और उसमें प्रारम्भ का प्रथम पृष्ठ नहीं है । यह एक आध्यात्मिक ग्रंथ है और कवि को प्रारम्भिक रचनाओं में से जान पड़ता है ।
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२. सत्यज्ञानतरंगिणी
इसे ज्ञानभूषरण की उत्कृष्ट रचना कही जा सकती हैं। इसमें शुद्ध श्रात्म तत्व की प्राप्ति के उपाय बतलाये गये हैं । रचना अधिक बड़ी नहीं है किन्तु कवि ने उसे १८ अध्यायों में विभाजित किया है। इसकी रचना सं० १५६० में हुई थी जब वे भट्टारक पद छोड़ चुके थे और आत्मतत्व की प्राप्ति के लिए मुमुक्षु बन चुके थे । रचना काव्यत्वपूर्ण एवं विद्वत्ता को लिए हुये है ।
भेदजानं बिना न शुद्धचिद्रष ध्यानसंभवः
भवेन्नैव यथा पुत्र संभूति जनकं बिना ||१०|३||
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X न द्रव्येण न कालेन न क्षेत्रेण प्रयोजनं । केनचिन्नेव भावेन न को शुद्धचिवात्मके | १७|४| परमात्मा परब्रह्म चिदात्मा सर्वद्रक शिवः । नामानीमान्य हो शुद्ध चित्र पस्यैव केवलं ||८|
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तरा निरहंकार वितन्वति प्रतिक्षणं ।
अतश्च चित्रपं प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥ ४॥ १०॥ ३. पूजाष्टक टोका-
इसकी एक हस्तलिखित प्रति संभवनाथ दि० जैन मंदिर उदयपुर में संग्रहीत है। इसमें स्वयं ज्ञानभूषण द्वारा विरचित आठ पूजाओं की स्वोपज टीका हैं । कृति में १० अधिकार है और उसकी अन्तिम पुष्पिका निम्न प्रकार है
इति भट्टारक श्री भुवनको ति शिष्यमुनिज्ञान भूषविरचितायां स्वकृताष्टकदशकटीकायां विद्वज्जनवल्लभासंज्ञायां नन्दीश्वरद्वीपजिनाल माननीय नामा दशमोऽधिकारः ॥
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यह ग्रन्थ ज्ञानभूषण ने जब मुनि थे तब निवड किया गया था। इसका रचना काल संवत् १५२८ एवं रचना स्थान डूंगरपुर का ग्रादिनाथ चैत्यालय है । "
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१. श्रीमद् विक्रमभूप राज्यसमग्रातीते वसुद्धत्रियक्षोणीसम्मित हायके गिरपुरे नामेयस्यालये ।
अस्ति श्री भुवनादिति मुनयस्तस्यांसि संसेविना, स्वोक्ते ज्ञान विभूषणेन मुनिना टीका शुभेयं कृता ||१||
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