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भ० विजयकीति
उसने पानी छानकर विधि बतलाने के लिए, व उपवास के महात्म्य को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से ही रासक-काव्यों की रचना में सफलता प्राप्त की । में रासक-काव्य गीति-प्रधान काव्य हैं, जिन्हें समारोहों के अवसरों पर जनता के सामने प्रच्छी तरह रखा जा सकता है ।
भ० विजयकोत्ति
१५ वीं वातादि में मट्टारक सकलकीर्ति ने गुजरात एवं राजस्थान में अपने स्यागमय एवं विद्वतापूर्ण जीवन से भट्टारक संस्था के प्रति जनता की गहरी आस्था प्राप्त करने में महान सफलता प्राप्त की थी। उनके गश्चात इनके दो सुयोग्य शिष्य प्रशिष्यों : भ० भुवनकीति एवं म. ज्ञानभूषण ने उसकी नींव को और भी न करने में अपना योग दिया। जनता ने इन साधुओं का हार्दिक स्वागत किया और उन्हें अपने मार्गदर्शक एवं धर्म गुरू के रूप में स्वीकार किया। समाज में होने वाले प्रत्येक धार्मिक एवं सांस्कृतिक तथा साहित्यिक समारोहों में इनसे परामर्श लिया जाने लगा तथा यात्रा संघों एवं बिम्बप्रतिष्ठानों में इनका नेतृत्व स्वतः ही अनिवार्य मान लिया गया । इन भट्टारकों के विहार के अवसर पर चामिक जनता द्वारा इनका अपूर्व स्वागत किया जाता और उन्हें अधिक से अधिक सहयोग देकर उनके महत्व को जनसाधारण के सामने रखा जाता। ये भट्टारक भी जनता के अधिक से अधिक प्रिय बनने का प्रयास करते थे । ये अपने सम्पूर्ण जीवन को समाज एवं संस्कृति की सेवा में लगाते और अध्ययन, अध्यापन एवं प्रवचनों द्वारा देश में एक नया उत्साहप्रद वातावरण पैदा करते ।
विजयकीति ऐसे ही भट्टारक थे जिनके बारे में अभी बहुत कम लिखा गया है। ये भट्ठारक ज्ञानभूषण के शिष्य थे और उनके पश्चात भट्टारक सकलकोनि द्वारा प्रतिष्ठापित भट्टारक गादी पर बैठे थे। इनके समकालीन एवं बाद में होने वाले कितने ही विद्वानी ने अपनी नथ प्रशस्तियों में इनका ग्रादर भाव से स्मरण किया है । इनके प्रमुख शिप्य मट्टारक शुभचन्द ने तो इनकी अत्यधिक प्रशंसा की है और इनके संबंध में कुछ स्वतंत्र गीत भी लिखे हैं। विजयकीति अपने समय के समर्थ भट्टारका धे। उनकी प्रसिद्धि एवं लोकप्रियता काफी अच्छी थी यही बात है कि ज्ञानभुषमा ने उन्हें अपना पट्टाधिकारी स्वीकृत किया और अपने ही समक्ष उन्हें भट्टारक