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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पद देकर स्वयं साहित्य सेवा में लग गये।
विजयीति के प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में अभी कोई निचिश्त जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है लेकिन भ० शुभचन्द के विभिन्न गीतों के आधार पर ये शारीर से कामदेव के समान सुन्दर थे । इनके पिता का नाम साह नंगा तथा माता का नाम कुअरि था।
साहा गंगा तनयं करउ विनयं शुद्ध गुरू' शुभ बंसह जातं कुअरि मात परमपरं साक्षादि सुबुद्ध जी कोइ शुद्ध दलित तमं । सरसेवत पायं मारीत मायं मभित तमं ।।१०।।
शुभचन्द्र कृत गुरूकुन्द गीत ।
बाल्यकाल में ये अधिक प्रध्ययन नहीं कर सके थे । लेकिन मज्ञानभूषण के संपर्क में प्राते ही उन्होंने सिद्धान्त ग्रंथों का गहरा अध्ययन किया । गोमट्टसार लब्धिसार त्रिलोकसार प्रादि संद्धान्तिक मथों के अतिरिक्त न्याय, काव्य, व्याकरण मादि के ग्रंथों का भी अच्छा अध्ययन क्रिया और समाज में अपनी बिद्धता की अद्भुत छाप जमा दी:
लब्धि सु गृमट्टसार नार लोक्य मनोहर । कर्कश तर्क वितर्क काव्य कमलाकर क्षिाकर । श्री मूलमधि विख्यात नर विजयीति बोहित करण । जा चांदसूर ता लगि तयो जयह सूरि शुभचंद्र सरगा ।
इन्होंने जब साधु जीवन में प्रवेका किया तो ये अपनी युवावस्था के उत्कर्ष पर थे । सुन्दर तो पहिले से ही थे किन्तु योयन ने उन्हें और भी निखार दिया था। इन्होंने साघु बनते हो अपने जीवन को पूर्णत: संथमित कर लिया और कामनायों एवं प्रटरस व्यंजनों से दूर हट कर ये साधु जीवन की कठोर साधना में लग गये। ये अपनी साधना में इतने तल्लीन हो गये कि देश भर में इनके परित्र की प्रशंसा होने लगी।
भ. शुभ वन्द्र ने इनकी सुन्दरता एवं संयम का एक रूपक गीत में बहुत ही सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है । रूपक गीत का संक्षिप्त निम्न प्रकार है।
जब कामदेव को भ. बिजयकीति की सुन्दरता एवं कामनाओं पर विजय का पता चला तो वह ईर्ष्या से जल भुन गया और क्रोधित होकर सन्त के संयम को डिगाने का निश्चय किया।