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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
एक नन्दिसंध की पट्टा बली से ज्ञात होता है कि ये गुजरात के रहने वाले थे । गुजरात में ही उन्होंने सागार धर्म धारण किया, अहीर (आभीर) देश में ग्यारह प्रतिमाए धारण की और वाग्बर या बागड़ देश में दुर्धर महावत ग्रहण किए। तलब देश के यत्तियों में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। तलब देश के उत्तम पुरुषों ने उनके परणों की वन्दना की, द्रविड़ देश के विद्वानों में उनका स्तवन किया, महाराष्ट्र में उन्हें बहुत यश मिला, सौराष्ट्र के घनी धावकों ने उनके लिए महामहोत्सव किया, सयदश (ईडर के पास पास का प्रान्त) के निवासियों ने उनके वचनों को अतिशय प्रमारग माना । मरूपाट (मेवात) के मुर्ख लोगों को उन्होंने प्रतिबोधित किया, मालवे के 'मन्य जनों के हृदय-कमल को विकसित किया, मेवात में उनके अध्यात्म रहस्यपूर्ण व्याख्यान से विविध विद्वान् श्रावक प्रसन्न हुए । कुमजागल के लोगों का प्रज्ञान रोग दूर किया, पैराठ (जयपुर के ग्राम पास के लोगों को उभय मार्ग (सागार अनगार) दिखलाये, नमिवाड (नीमाड) में जैन धर्म को प्रभावना की । भैरव राजा ने उनकी भक्ति की, इन्द्रराज ने चरण पूजे, राजाधिराज देवराज न चरणों की पाराधना की। जिन धर्म के आराधक मुदलियार, रामनायराय, बोम्मरसराम, कलपराय, पान्डुराम आदि राजाओं ने पूजा की और उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा की । व्याकरण-छन्द-अलंकारसाहित्य-तर्क-आगम-अध्यात्म आदि शास्त्र रूपी कमलों पर विहार करने के लिए ये राज हंस थे और शुद्ध घ्यानामृत-पान की उन्हें लालसा थी । उक्त विवरण कुछ अतिशयोक्ति-पूर्ण भी हो सकता है लेकिन इतना तो अवश्य है कि शानभूषण अपने समय के प्रसिद्ध सन्त थे और उन्होंने अपने त्याग एवं विद्वत्ता से सभी को मुग्ध कर रखा था।
ज्ञान भूपण मा भुवनकीत्ति के पश्चात् सागबारा में भट्टारक गादी पर बैठ । अब तक सबसे प्राचीन उल्लेख सम्वत् १५३१ वैशाख बुदी २ का मिलता है जब कि इन्होंने डूगरपुर में आयोजित प्रतिष्ठा महोत्सव का संचालन किया था। उस समय डूंगरपुर प्रा. रावल सोमदास एवं रानी गुराई का शासन था। श्री जोहारपुकार ने शानभूषण का मारक काल संबत १५३४ से माना है लेकिन यह काल
१. देखिये नाथूरामकी प्रेमी कृत जैन साहित्य और इतिहास
पृष्ठ संख्या ३८१-३८२ २. संवत् १५३१ वर्षे वैसाख खुबी ५ बुधे श्री मलसंघे भ० श्री सकलकीति
स्तत्प? भ. भुवनकोतिदेवास्तत्प? भ. श्री शानभूषणदेवस्तदुपदेशात् मेघा भार्या टीगू प्रणमति श्री गिरिपुरे राबल श्री सोमवास राज्ञो गुराई
सुराज्ये। ३. देखिये-भट्टारक सम्प्रचाय-पृष्ठ संख्या-१५८