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राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
है । हिन्दी में गद्य पद्य दोनों का ही उपयोग किया मया है । माषा वैचित्र्य की दृष्टि से रचना का अत्यधिक महत्व है । सोमकीति ने इसे संवत् १५१८ में समाप्त किया था इसलिए उस समय की प्रचलित हिन्दी गद्य की इस रचना से स्पष्ट झलक मिलती है । यह कृति हिन्दी गद्य साहित्य के इतिहास की विस्तुप्त कड़ी को जोड़ने वाली है।
इस पट्टावनी में काष्टासंघ का अच्छा इतिहास है । कृति का प्रारम्भ काष्टा संघ के ४ गच्छों से होता है ओ नन्दीतटगच्छ, माधुरगा, बारागच्छ, एवं लाडवागड़ गच्छ के नाम से प्रसिद्ध थे। पट्टावली में आचार्य प्रादुर्भाल को सपहीतट गमक का प्रथम आचार्य लिया है । इसके पश्चात अन्य आचार्यों का संक्षिप्त इतिहास देते हुए ८७ आचार्यों का नामोल्लेख किया है। ८७ , भट्टारक आचार्य सोमकोलि थे। इस गच्छ के आचार्य रामसेन ने नरसिंहपुरा जाति की तथा नेमिसेन ने मट्टपुरा जाति की स्थापना की थी। नेमिसन पर पथावती एवं सरस्वती दोनों की कृपा थी और उन्हें आकाशगामिनी विद्या सिद्ध थी।
रचना का प्रथम एवं अन्तिम माग निम्न प्रकार है :
नमस्कृत्य जिनाधीशान, सुरापुरनमस्कृतान् । वृषभाविकीरपसान वक्ष श्रीगुरूपवितं ॥१॥ ममामि शाश्वां देवीं विधानन्दामायिनीम् । जिनेन्द्रबदनांभोज, हसनी परमेश्वरीम् ।।२।। चारित्रावगंभीरान नवा श्रीमुनिपुगवान् । गुरुनामावली वक्षे समासेन स्वशक्तितः ॥३॥ दूहा-जिरा चुदीसह पायनमी, समरवि शारदा माय । कट्ट संघ गुण वावु', परामवि गणहर पाई ।।४।।
काम कोह मद मोह, लोह आनंतुटालि ।। कट्ठ संघ मुनिराउ, गछ इशी परि अजूयालि ।। श्रीलक्ष्मसेन पट्टोधरण पायपक छिप्पि नहीं। जो नरह नरिदे बंदीइ, श्री भीमसेन मुनिवरसही ॥ सुर गिरि सिरि को घर, पाउ करि अति बलवन्तौ । कवि रणायर तीर तीर पह तस्य सरंतो। को आयास पमारण हत्थ' करि गहि कमतौ । कट्ठसंघ संघ गुण परिलहि विह कोइ लहंती ।। श्री भीमसेन पट्टह घरण गछ सरोमरिण कुलतिलो। जागति सुजागह जाए नर श्री सोमकीप्ति मुनिवर भलौ ।