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ब्राहम जिनदास
कृति का आदि एवं अन्तिम भाग देखिए -
प्रथम नसु जिनवर ना पाय, जेहनि सुख संपति बहु थाय | सरस्वति देवि ना पद नमु, पाप ताप सहु दूरे गमु ॥९॥ कथा काहु रडि रविवार, जेह थी लहिए सुख' मंडार ।। काली देश मनोहर ठाम, नगर बसे वारानसी नाम ॥२॥ राजा राज करे महीपाल, सूरवीर गुगाबंत दयाल । नगर सेठ धनवंतह वसे, पूजा दान वारी अघ नने ॥३॥ पुत्र सात तेह ने गुणवंत, सज्जन रुजान मलिसंत ।
गुणधर लोहडो बालकुमार, तेह् भरिणयो सवि शास्त्र विचार ।४।। अन्तिम
मूल संघ मंडन मनोहार, सकनकीत्ति जग मा विस्तार ! गया धर्म नो करे उधार, कलि काले गौतम अवतार ।।४।। तेहमो सीस्प ब्रह्म जिनदास, रविवार व्रत कीयो प्रकाश । भाषधरी ग्रत करे से जेह, मन वांछित सुख पामे तेह ॥४६॥
इति रविव्रत कथा सम्पूर्णम् । १९. श्रीपाल रास
यह कोटिभट धीपाल के जीवन पर आधारित रासफ काश्म है जिसमें पुरुषार्थ पर भाग्य की विजय बतलाई गयी है । रास की एक प्रति खण्डेलवाल दि. जैन मंदिर उदयपुर के ग्रंथ भण्डार में मंग्रहीत है। कवि ने ४४८, पद्यों में श्रीपाल, मैना सुन्दरी, रैनमंजूषा धवलसेठ आदि पात्रों के चरित्र सुन्दर रीति से लिखे गये हैं। राम की भाषा भी बोलचाल को भाषा है । रनमंजुषा का विलाप देखिये
रयगमंजूषा अवला बाल, करि मिलाप तिहां गुणमाल । हा हा स्वागी मझ तु कत, समुद्र माहि किम पठी मंत ॥१८४॥ पर भनि जोत्र हिसा मि नारी, सत्य वचन बल न विधकरी । नर भारी निदी घाअपल, सि पापि गझ पठीउ जाल ।।१८५।। कि मुनिवर निंदा करी, जिनवर पूजा कि अपहरी । कि धर्म तदयु कार. विणास, तेरिश प्रायुमझ दुख निवास ।। १८५।। कृति का अन्तिम भाग निम्न प्रकार हैसिद्ध पूजा सिद्ध पूजा सार भवतार । तेहनि रोग गयु राज्य पाम्य, बलोसार मनोहर । श्रीपाल राणु निरमलु संयम, नीधु सार मुगलियर । मयण स्त्रीलिंग छेद करी, स्वर्ग देव उपनु निरभर ।
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