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राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जीवन राजस्थान में ध्यतीत हुआ था इसलिए इनकी रचनाओं में राजस्थानी भाषा की स्पष्ट छाप दिखलाई देती है।
१. णमोकार फल गीत--यह इनकी प्रथम हिन्दी रचना है। इसमें णमोकार मंत्र का महात्म्य एवं उसके फल का वर्णन है । रचना कोई विशेष बड़ी नहीं है. केवल १५ पद्यों में ही वरिणत विषम पूरा हो जाता है। कवि ने उदाहरणों द्वारा पह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि एमोकार मंत्र का स्मरण करने से अनेक विघ्नों को टाला जा सकता है । जिन पुरुषों के इस मंत्र का स्मरण करने से विघ्न दूर हुये हैं उनके नाम भी गिनाये है। तथा उनमें धरणे द्र, पदमानती, अंजन-चोर, सेठ सुदर्शन एवं बारूदत्त उल्लेखनीय हैं । कवि कहता है---
सर्व जुगत पसि हो गाव बनिन् । णमोकार फल लहीहउ पंथियडारे. पद्मावती परणेंद्र । मोर अंजन मूली पर्यो, श्रेण्डि दियो णमोकार । देवलोक जाइ करो, पंथियडारे सुख भोगवे अपार । चारूदत्त श्रेण्ठिं दियो घाला ने णमोकार । देव भवनि देवज हुहो, सुखनः विलासई पार॥ ग्रह ढाकिनी शाकिरणी फरणी, व्यापि वलि जलराशि ।
सकल बंधन तूटए पंथिय डारे विघन संवे जावे नाशि ।। कवि अन्त में इस रचना को इस प्रकार. समाप्त करता है:चवीसी अमंत्र हुई, महापंथ अनादि
सकलकीरति गुरू इम कहे, पंथियडारे कोई न जाए
प्रादि जीव लारे भव सागरि एह नाव ।
२, आराधना प्रतिशेष सार यह इनकी दूसरी हिन्दी रचना है। प्राकृत भाषा में निबद्ध आराधना सार का कवि ने भाव मात्र लिखने का प्रयत्न किया है। इसमें सब मिलाकर ५५ पद्य हैं। प्रारम्भ में कवि ने णमोकार मंत्र की प्रशंसा की है तत्पश्चात संयम को जीवन में उतारने के लिए आग्रह किया है। संसार को क्षण भंगुर बताते हुए सम्राट भरत, बाहुबलि, पांडव, रामचन्द्र, सुग्रीव, सुकुमाल, श्रीपाल आदि महापुरुषों के जीवन से शिक्षा लेने का उपदेश दिया है । इस प्रकार आगे तीर्घ क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए मनुष्य को अणवत प्रादि पालने के लिए कहा गया है। इन