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म० सकलकीत
सबका संक्षिप्त वर्णन हैं। रचना सुन्दर एवं सुपाख्य है । रचना के कुछ सुन्दर पद्यों का रसास्वादन करने के लिए यहां दिया जाता है
तप प्रायश्चित व्रत करि शोध, मन वचन काया निरोषि ।
तु क्रोध माया मद छांडि, आपण सयलइ मांहि || गया जिरावर जगि चउवोस, नहि रहि आवार चक्कीस | गया बलिभद्र, न बर कीर, नव नारायण गया धीर ॥ गया भरतेस देह दान, जिन शासन थापिय मांन । गयो बाहुबलि जगमाल, जिसे हइ न राख्छु साल || गया रामवन्त्र रपि रंगि, जिरा साँचु जस अभंग ।
गयो कुभकरण जगिसार, जिसे लियो तु महाश्रत भार ॥
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जे जात्रा करि जग मांहि संभार ते मन मांहि । गिरनारी ग तु धीर, संमारिह बडावीर ॥ पात्रा गिरि पुन्य मंडार, संभारैयां सार । तारण तोरय होइ, संभारह बडा जोइ ॥ हवे पांचमी व्रत प्रतिपालि, तु परिग्रह दूरिय टालि । हो धनकुंचन मां मोल्हि, सतोबीह माह समेल्हि हवाई गति फेरो टालि, मन जाति चहुं दिशि बार । हो नरगि दुःखन विसार, तेह केता कहूँ अविचार ||
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अन्त में कवि ने रचना को इस प्रकार समाप्त किया है
जे भाई सुखइ ं नर नारि, ते जाइ' भने पारि । श्री सकलंकीति का विचार, अराधना प्रतिबोधसार ।।
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३. सारसीयामरिरास - सारसीखामणिरास राजस्थानी भाषा की लघु किन्तु सुन्दर कृति है । इसमें प्राणी मात्र के लिये शिक्षाप्रद संदेदा दिये गये हैं। रास में ४ ढालें तथा तीन वस्तुबंध छन्द हैं। इसकी एक प्रति रणवां (राजस्थान) के दिगम्बर मंदिर बचेरवालों के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत एक गुटके में लिपिबद्ध है । गुटका की प्रतिलिपि संवत् १६४४ वैशाख सुदी १५ को समाप्त हुईथी। इसी गुटके में सोमकीति,