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पुरुषार्थसिद्धपा
अनेकान्त अनेकरूप ( भेव )
अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनय साधनः । अनेकान्तः प्रमाणातं तदेकान्तोऽपायात् ।। १०३ ॥
- स्वयंभूस्तीय
अर्थ :--- अनेकान्त याने वस्तुमें अनेक धर्म एवं अनेकान्त याने स्याद्वाद अर्थात् उन वस्तुगत are धर्मका कचित् कथन, ये दोनों चीजें ( वाच्य व बाचक ) प्रमाण और नयके द्वारा सिद्ध होती हैं अर्थात् प्रमाण और नम अनेकान्तके योतक हुआ करते हैं । अतएव उनको अनेकान्त के साधन ( हेतु ) नामसे कहा गया है— साध्य- अनेकान्त के साधक प्रमाण व नय हैं ऐसा कहा है । अस्तु, यदि प्रमाण व नय न होते तो अनेकान्तको कौन बताता ? प्रमाण और नय ही ज्ञापक हैं तथा अनेकान्त रूप पदार्थ ज्ञेय है, यह निर्णय है । ज्ञानका और ज्ञेयका परस्पर ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध ही है दूसरा कोई कर्त्ता कर्म ( उत्पाद्य उत्पादक ) संबंध नहीं है । प्रमाण समुदायरूप वस्तु ( अखंड ) को जानता है जो अनेक धर्मरूप है और नय खंड-खंडको जानता है जो एक धर्मरूप है । अथवा प्रमाण अनेकान्त व नय अनेकान्त व पदार्थ अनेकान्त ऐसा तीन तरहका अनेकान्तहोता है। इसके सिवाय प्रमाण खुद अनेक भेदरूप हैं व लय खुद अनेक भेदरूप है जो वस्तु के भिन्न-भिन्न रूपों को बताते हैं । परन्तु तारीफ यह है कि वे सब रूप ( पहलु ) परस्पर वस्तुमें ही सापेक्ष रहते हैं, उनके पृथक्-पृथक् प्रदेश नहीं रहते सभी व्याधित रहा करते हैं। अतएव वे सब प्रामाणिक होते हैं । प्रश्न- यद्यपि क्षायिकज्ञान ( केवलज्ञान ) युगपत् पूर्णरूप से पदार्थोंको जानता है, अतएव उसको प्रामाणिक मानना तो ठीक है किन्तु क्षायोपशमिक ज्ञान ( मतिज्ञानादि चार ज्ञान) और सभी नय पदार्थको पूर्णरूपसे नहीं जानते, अपितु थोड़ा-थोड़ा जानते हैं तब उनको प्रामाणिक नहीं माना जा सकता ? इसका उत्तर- इस प्रकार है कि जितना अंश ( अपूर्ण ) वे जानते हैं उतना वह सही जानते हैं अतएव गंगाजल की तरह वह सत्य ही है किन्तु वह अंशरूप ही है, अंशी या पूरा नहीं है, सब मिलकर पूरा होता है यह भी वही बताता है अतएव वह सत्यवक्ताकी तरह सत्य है, भ्रमात्मक नहीं है, कथंचित् वह भी प्रामाणिक है ( अंशकी अपेक्षा से ) फलतः आप्तमीमांसा में स्वामी समन्तभद्राचार्य ने कहा है
ज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वमासनम् ।
क्रमभाषि व यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥१०१॥
----आप्तमी०
अर्थ :- भगवन् ! आपका युगपत् सब पदार्थोंको यथार्थं प्रत्यक्ष जाननेवाला तत्त्वज्ञान ( क्षायिक केवलज्ञान ) प्रमाण है, निःसन्देह है । किन्तु जो क्षायोपशमिक ज्ञान ( मत्यादि चार ) और नय हैं वे भी प्रमाण हैं कारण कि वे स्याद्वाद नय ( न्याय ) से संयुक्त हैं अर्थात् उनको भी कथंचित् प्रामाणिक माना जाता है, पूर्ण प्रामाणिक नहीं माना जाता । जैसा कि केवल-ज्ञानको सर्वथा प्रामाणिक माना जाता है, यह तात्पर्य है ।