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१. सम्यग्दर्भमाधिका भावार्थ---यद्यपि निरपेक्ष एकान्त मिशह और इसलिए उनके समूहरूप अनेकान्तको मिथ्या कहा जा सकता है पर जैन दर्शनमें न निरपेक्ष एकान्तको स्वीकार किया है और न उनके समूहको अनेकान्त माना है। अपितु उन्हें मिथ्या ही कहा है। किन्तु सापेक्ष एकान्त और उनके समूह अनेकान्तको अङ्गीकार किया तथा उन्हें वस्तु ( सम्यक् ) एवं अर्थक्रियाकारी बतलाया है। अतः सापेक्ष एकान्ताको विषय करने वाले नय प्रमाणस्वरूप ही हैं। इसके सिवाय प्रमाणके द्वारा द्वारा गृहीत पदार्थके अशको ही नय ग्रहण करता है इसलिए उसका पदानुसारी होनेसे प्रमाणको तरह वह भी प्रामाणिक है।
विशेष—अनेकान्तरूप ( स्याहादरूप -- कथंचितुरूप) आगमका ज्ञान हो जानेसे निश्चय और व्यवहाररूपनाका भी उससे ज्ञान हो जाना संभव है । अर्थात जिस प्रकार शब्द या बचन पदार्थको थोड़ा-थोड़ा कहते हैं अतएव वे अनेकान्तरूप हैं ( अनेक तरहका कथन करनेवाले हैं ) उसी तरह वे वचन या शब्द, निश्चयरूप भी हैं-निश्चयका याने द्रव्यका कथन करनेवाले हैं तथा व्यवहाररूप भी हैं..-संयोगी पर्यायका कथन करनेवाले हैं।' इस तरह परमागमके भेद, कम व निश्चय-व्यवहाररूपताका वर्णन हुआ।
वक्ता और श्रोतामें निश्चय व्यवहार प्रदर्शन निश्चय नयशे शुद्ध आत्मा बोलती नहीं है, बोलना शब्द है और पुद्गलको पर्याय है, जीवकी नहीं है अलएब आत्मा अवक्ता ही है-वह ज्ञाता दुष्टा है। फलतः द्रव्यार्थिक नयसे आत्मा वक्ता नहीं है किन्तु पर्यायाथिक नयसे अर्थात व्यवहार नयसे आत्माका ब जड़ शरीरका संयोगसंबंध होनेसे जड़ शरीरको शब्दपर्यायको आत्मा ( जीव ) की मान ली जाती है। बस, यही तो व्यवहारमा उपचार है और यह कलंक ही जीवको बदनाम कर देता है कि 'आत्मा वक्ता है। इत्यादि । इसी तरह आत्मा द्रव्याथिकानय या निश्चय नयसे धोता भी नहीं है कारण कि उसके कान नहीं हैं जिनसे वह सुन सके । कान पुदगलको रचना है और आत्मा चेतनरूप ज्ञाता दृष्टा है तब वह श्रोता नहीं हो सकता। किन्तु संयोगी पर्यायमें व्यवहार नयसे अर्थात् पर्यायार्थिकनयको अपेक्षासे जीव या आत्माको कह दिया जाता है कि आत्मा श्रोता है-सुनसा है इत्यादि। यह सब उपचार है ( करवत्ता मात्र है; पराश्रित है, अभूतार्थ है)। इस प्रकार संयोगी पर्याय में निश्चय और व्यवहार दोनोंका अस्तित्व नवित्रक्षासे सिद्ध होता है, कोई विरोध नहीं आता ! फलतः अनेकान्त या स्यावाद ( शब्दरूप व ज्ञानरूप व नयरूप ) सभी विवादों या विरोधोंको मिटा देता . है भो उसका स्वभाव है। किम्बहुना, अनेकान्तको अच्छी तरह जानना व समझना मुख्य कर्तव्य है। अनेकान्त अनेक तरहसे घटित किया जाता है याने निश्चयसे व व्यवहारसे, स्वचतुष्टय तथा परचतुष्टयसे भी युगपत् अनेकान्त सिद्ध होता है। जैसे कि युगपत् अस्ति ब नास्ति एकत्र निर्विरोध सिद्ध होते हैं। ज्ञान व अज्ञान भी इसी तरह समझना चाहिये।
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१. द्रव्याश्रितो निश्चय :-.-शर याने परसे भिन्न हुन्छ मात्रका कथन करनेवाला प्रत्याधिक भय ।
पर्यायाश्रितो व्यवहार :-संयोगी पर्यायका कथन करनेवाला पर्यायाथिक नय ।